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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा प्रथम १४

अन्ते या मतिः सा गतिः

संवत् १८७६ में मार्गशीर्ष कृष्णा द्वितीया (३ दिसम्बर, १८१९) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में श्रीवासुदेव नारायण के मन्दिर के आगे नीम वृक्ष के नीचे पलंग पर दक्षिण की ओर मुखारविन्द करके विराजमान थे। उन्होंने मस्तक पर सफ़ेद पाग पहनी थी, श्वेत धोती धारण की थी, सफ़ेद चादर ओढ़ी थी। उनकी पाग में पीले पुष्पों की कलगी लगी हुई थी। उनके दोनों कानों में पीले फूलों के गुच्छ लगे हुए थे और उनके ऊपर गुलाब के पुष्प थे। उनके कंठ में पुष्पों का हार था। तथा वे अपने दायें हाथ में सफ़ेद सेवती पुष्प को घुमा रहे थे। उनके मुखारविन्द के समक्ष सभा में मुनि तथा स्थान-स्थान के हरिभक्त बैठे थे।

श्रीजीमहाराज ने साधुओं से प्रश्न पूछा, “एक हरिभक्त है, वह संसार छोड़कर निकला है। यद्यपि वह अति तीव्र वैराग्यवाला तो नहीं है, और देह से व्रत-नियमों का यथार्थ पालन करता है, और उसके मन में संसार की थोड़ी-सी वासना बची हुई है, जिसे वह विचार द्वारा नष्ट कर देता है। उसके मन में भगवान का निश्चय भी सुदृढ़ बना हुआ है। ऐसा एक त्यागी भक्त है। दूसरा गृहस्थ भक्त है, उसे भी भगवान का निश्चय दृढ़ है। वह आज्ञापालन करके घर में रहता है और संसार से उदासीन है। संसार में जितनी वासना पूर्वोक्त त्यागी को है, उतनी ही वासना गृहस्थ को भी है। भगवान के इन दोनों भक्तों में कौन श्रेष्ठ है?”

मुक्तानन्द स्वामी बोले, “त्यागी भक्त श्रेष्ठ है।”

तब श्रीजीमहाराज बोले, “वह तो संसार से उद्विग्न होने के कारण स्वयमेव केवल वेश बनाकर निकला है, वह किस प्रकार श्रेष्ठ है? तथा गृहस्थ तो आज्ञापालन से घर में रहता है, वह किस प्रकार न्यून है?”

श्रीजीमहाराज के प्रश्न का मुक्तानन्द स्वामी ने अनेक प्रकार से समाधान किया, परन्तु समाधान हुआ नहीं। तब मुक्तानन्द स्वामी बोले, “हे महाराज! आप ही समाधान कीजिए।”

श्रीजीमहाराज बोले, “त्यागी को यदि अच्छी तरह से खाने को मिले, उसमें भी वह अपरिपक्व मानसिकता रखता हो, तो संसार की वासना उसके हृदय में पुनः उत्पन्न हो जाती है अथवा त्यागी-जीवन में अत्यन्त दुःख पड़ने पर भी सांसारिक वासना फिर पैदा हो जाती है। ऐसी स्थिति में तो त्यागी की अपेक्षा गृहस्थ बहुत अच्छा है, क्योंकि गृहस्थ भक्त को जब दुःख पड़ता है अथवा अधिक सुख मिलता है, तब वह ऐसा विचार रखने लगता है कि, ‘शायद मुझे इन सुखों में बन्धन हो गया तो?’ ऐसा समझकर वह संसार से उदासीन रहता है। इसलिए, वास्तव में वही सच्चा त्यागी है, जिसमें संसार छोड़ने के बाद सांसारिक वासना रहती ही नहीं है। गृहस्थ तो वासनिक त्यागी की अपेक्षा कहीं अधिक श्रेष्ठ है, बशर्ते कि वह गृहस्थ-धर्म का पालन करे। फिर भी, गृहस्थ-धर्म तो बड़ा कठिन है। उसमें यह कठिनाई है कि अनेक प्रकार के सुख-दुःख आने पर भी वह सन्त की सेवा तथा धर्म से अपने मन को विचलित नहीं होने देता। वह तो यह समझता है कि, ‘सन्त का सत्संग जो मुझे मिला है, वह तो मुझे परमचिन्तामणि तथा कल्पवृक्ष प्राप्त हुआ है। धन, दौलत, पुत्र-पुत्रियाँ आदि तो सभी स्वप्नतुल्य हैं। सच्चा लाभ तो सन्त का सत्संग मिला वही है।’ ऐसा समझे और चाहे कितना ही भारी दुःख आ पड़े, फिर भी वह गृहस्थ उससे विचलित नहीं होता हो, इस प्रकार का गृहस्थ सत्संगी अतिश्रेष्ठ है। इस स्थिति में ऊपर उठकर भगवान का भक्त होना वास्तव में अत्यन्त कठिन है तथा भगवद्भक्तों का संग मिलना तो और भी अधिक दुर्लभ है।”

इतना कहने के पश्चात् श्रीजीमहाराज ने भगवान और सन्त की महिमा सम्बंधी मुक्तानन्द स्वामी रचित कीर्तनपदों का गान करवाया।

मुक्तानन्द स्वामी ने प्रश्न किया, “श्रुतियों में ऐसा कहा गया है कि ‘अन्ते या मतिः सा गतिः’२४ अर्थात् अन्तकाल में यदि भगवान में मति रहे तो सद्गति होती है। यदि ऐसा नहीं हुआ तो जीव की उच्चतम पद पर गति नहीं होती। यदि ऐसा ही होता, तो जीवनभर मुमुक्षु ने जो भक्ति की है, उससे कौन-सा अधिक लाभ है?”

फिर श्रीजीमहाराज बोले, “जिसे साक्षात् भगवान की प्राप्ति हुई है, उसे अन्तकाल में उनकी स्मृति रहे या न रहे फिर भी उसका अकल्याण नहीं होता। भगवान उसकी रक्षा करते हैं। और जो पुरुष भगवान से विमुख रहता है, वह यदि बोलते-चलते हुए, बिना कष्ट के देह-त्याग करता है, तो भी उसका कल्याण नहीं होता और वह मरकर यमपुरी में जाता है। कितने ही पापी कसाई होते हैं, जो बोलते-चलते हुए देह-त्याग करते हैं, और कई भगवान के भक्त होते हुए भी उनकी अकाल मृत्यु हो जाती है, उन भक्तों का अकल्याण होगा? और क्या उस पापी का कल्याण होगा? बिल्कुल नहीं! यहाँ तो इस श्रुतिवाक्य का अर्थ इस प्रकार करना चाहिए कि, ‘इस समय उस भक्त की जैसी मति है, वैसी ही गति अन्तकाल में होती है।’ इसलिए जिस भक्त की मति में ऐसा भाव रहता हो कि, ‘मेरा कल्याण तो हो चुका है।’ तो अन्तकाल में अवश्यरूप से उसका कल्याण हो ही गया है। जिसे सन्त नहीं मिले हैं और भगवान के स्वरूप की भी प्राप्ति नहीं हुई है, उसकी मति में ऐसा हो कि, ‘मैं अज्ञानी हूँ, और मेरा कल्याण नहीं होगा।’ तो उसकी मति के अनुसार ही उसकी गति होगी। जो पुरुष भगवान के दास हो गए हैं, उनको तो कुछ करना शेष नहीं रहा। उनके दर्शनों से तो अन्य जीवों का कल्याण हो जाता है। तब उनका अपना कल्याण होने में कहना ही क्या है? परन्तु, भगवान का दास बनना अत्यन्त कठिन है, क्योंकि भगवान के जो दास होते हैं, उनके लक्षण ये हैं कि, ‘देह को मिथ्या जाने, और अपनी आत्मा को सत्य माने, और अपने स्वामी के भोग्य पदार्थों को स्वयं भोगने की इच्छा कभी न करे, तथा अपने स्वामी की इच्छा के विपरीत दूसरा आचरण कभी न करे।’ ऐसा हो उसको ही भगवान का दास कहा जा सकता है। जो भगवान का दास होता है, वह यदि देहरूप होकर बरतने लगता है, तो वह प्राकृत भक्त कहा जाएगा!”

॥ इति वचनामृतम् ॥ १४ ॥

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२४. हिरण्यकेशीयशाखाश्रुतिः, यह शाखा वर्तमान समय में उपलब्ध नहीं है।

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