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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा मध्य ७

दरिद्र के दृष्टांत से विकारों का उन्मूलन

संवत् १८७८ में श्रावण शुक्ला एकादशी (९ अगस्त, १८२१) को रात्रि में स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में श्रीवासुदेव नारायण के मन्दिर के सामने विराजमान थे। उन्होंने सभी श्वेत वस्त्र धारण किए हुए थे। उनके समक्ष परमहंस तथा विभिन्न प्रान्त के हरिभक्त उपस्थित थे।

ऐसे समय में मुक्तानन्द स्वामी ने श्रीजीमहाराज से प्रश्न पूछा कि, “भगवान के भक्त के मन में ऐसा विचार रहता है कि, भगवान के भजन में विघ्न डालनेवाला ऐसा कोई भी स्वभाव मुझे नहीं रखना है, फिर भी अनुचित स्वभाव रह जाते हैं, इसका क्या कारण है?”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “जिसके हृदय में वैराग्य की दुर्बलता होती है, उसे स्वभावों को टालने की भावना रहते हुए भी वह स्वभाव को नहीं मिटा पाता। जैसे दरिद्र मनुष्य स्वादिष्ट भोजन को तथा अच्छे-अच्छे वस्त्रों की चाह रखे, तो क्या ऐसी वस्तुएँ उसे मिलेंगी? वैसे ही वैराग्यहीन व्यक्ति के हृदय में इच्छा भले ही रहे, परन्तु साधुता के गुण सिद्ध होना तो बहुत ही के दुर्लभ है।”

तब मुक्तानन्द स्वामी ने प्रश्न पूछा कि, “जिसे वैराग्य की दृढ़ता न हो, उसे ऐसा कौन-सा उपाय करना चाहिए, जिससे कि उसके विकार मिट जाएँ?”

श्रीजीमहाराज बोले कि, “वैराग्यहीन पुरुष यदि किसी बड़े सन्त की अत्यंत सेवा करे तथा परमेश्वर की आज्ञा में यथार्थरूप से प्रयासरत रहे, तो परमेश्वर भी उस पर कृपादृष्टि से देखने लगते हैं कि, ‘यह बेचारा वैराग्यरहित है और उसे काम-क्रोधादि विकार अत्यन्त पीड़ा दे रहे हैं, अतः उसके समस्त विकार मिट जाएँ!’ तब परमेश्वर की कृपा से उसके विकार तत्काल मिट जाते हैं। अन्यथा, अनेक साधनों के द्वारा दीर्घकाल तक साधना करते रहने पर भी इस जन्म में अथवा दूसरे जन्म में मिटते हैं। तत्काल समस्त विकारों का उन्मूलन तो केवल परमेश्वर की कृपा से ही सम्भव हो सकता है।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ७ ॥ १४० ॥

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प्रकरण गढ़डा प्रथम (७८) सारंगपुर (१८) कारियाणी (१२) लोया (१८) पंचाळा (७) गढ़डा मध्य (६७) वरताल (२०) अमदावाद (३) गढ़डा अंत्य (३९) भूगोल-खगोल वचनामृतम् अधिक वचनामृत (११)

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