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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा मध्य ८

एकादशी व्रत, ज्ञानयज्ञ, अंतर्दृष्टि

संवत् १८७८ में श्रावण शुक्ला द्वादशी (१० अगस्त, १८२१) को प्रातः काल स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में श्रीवासुदेव नारायण के मन्दिर के आगे गद्दी पर विराजमान थे। वे श्वेत वस्त्र धारण किए थे। उनके समक्ष परमहंस तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी। परमहंस मृदंग और ताल लेकर कीर्तन गा रहे थे।

उस समय श्रीजीमहाराज सन्तों के प्रति कहने लगे कि, “एकादशी व्रत की कथा यह है कि एक बार भगवान दस इन्द्रियों और ग्यारहवें मन को अन्तर्मुख करके सो रहे थे, तभी नाड़ीजंघ का पुत्र मुरदानव युद्ध करने के लिए आया। उसी समय भगवान की एकादश इन्द्रियों के तेज से एक कन्या उत्पन्न हुई। उसे देखकर मुरदानव ने कन्या से कहा कि, ‘तू मुझसे विवाह कर ले।’ तब कन्या ने कहा कि, ‘मेरी ऐसी प्रतिज्ञा है कि जो कोई मुझे युद्ध में जीत लेगा, उसी के साथ विवाह करूँगी।’ इसके पश्चात् दोनों में युद्ध छिड़ गया और कन्या ने मुरदानव का मस्तक खड्ग से काट डाला।

“इस पर भगवान ने प्रसन्न होकर कन्या से कहा कि तू वरदान माँग ले। कन्या ने उस समय माँगा कि, ‘मेरे व्रत के दिन कोई भी मनुष्य अन्नाहार न करे तथा मैं आपकी एकादश इन्द्रियों के तेज से प्रकट हुई हूँ, अतः मेरा नाम एकादशी हो। मैं तपस्विनी हूँ, अतएव मेरे व्रत के दिन मन आदि एकादश इन्द्रियों का आहार कोई न करे।’ एकादशी के ऐसे वचन को सुनकर भगवान ने उसे ‘तथास्तु’ कहा। ऐसी पौराणिक२२० कथा है।

“धर्मशास्त्रों में भी कहा गया है कि, ‘एकादशी के व्रत के दिन काम, क्रोध, लोभादि विषय सम्बंधी बुरे संकल्प मन में बिलकुल नहीं करने चाहिए और देह की क्रियाओं द्वारा भी कोई अनुचित आचरण नहीं करना चाहिए।’ शास्त्रों के उन वचनानुसार हम भी यह बात कहते हैं कि एकादशी के दिन ढोरलंघन (बिना अन्य नियमों का पालन किए, केवल उपवास करना) नहीं करना चाहिए तथा एकादश इन्द्रियों के आहार का त्याग करें, वही वास्तविक एकादशी व्रत है, अन्यथा तो वह ‘ढोरलंघन’ ही कहलायेगा।

“और, जिस प्रकार प्राणों का आहार अन्न है, श्रोत्रेन्द्रिय का आहार शब्द है, त्वचा का आहार स्पर्श है, नेत्रों का आहार रूप है, जिह्वा का आहार रस है, नासिका का आहार सुगन्ध है, तथा मन का आहार संकल्प-विकल्प है; इस प्रकार ग्यारह इन्द्रियों के भिन्न-भिन्न आहार हैं। इन समस्त आहारों के त्याग को ही ‘एकादशी व्रत’ कहा जाता है। किन्तु ग्यारह इन्द्रियाँ कुमार्ग पर चलकर अपना-अपना आहार ग्रहण करने लगें, तो वह शास्त्र सम्मत एकादशी व्रत नहीं कहा जा सकता। अतः जिस दिन एकादशी व्रत करना हो, तब ग्यारह इन्द्रियों को अपना आहार करने का अवसर नहीं दिया जाना चाहिए। यह व्रत पन्द्रह दिनों में एक बार आता है, तो इसे सावधान होकर करना चाहिए। तभी भगवान व्रत करनेवाले पर प्रसन्न होते हैं, किन्तु बिना संयम के जो ‘ढोरलंघन’ करता है, उन पर भगवान की प्रसन्नता नहीं होती।

“और, श्वेतद्वीप में जो निरन्नमुक्त कहलाते हैं, वे सदैव यह व्रत किया करते हैं, कभी भी इस व्रत का भंग नहीं होने देते; इसीलिए उन्हें निरन्न कहा जाता है। अतः हमें भी ऐसी ही इच्छा रखनी चाहिए कि, ‘श्वेतद्वीप में जैसे निरन्नमुक्त हैं, उनके समान ही हमें भी होना है।’ किन्तु, इस बात के बारे में हतोत्साह नहीं होना चाहिए। हिम्मत से दृढ़तापूर्वक जैसा कहा है, उसी प्रकार एकादशी व्रत करना चाहिए और भगवान की कथा एवं भजनादि करना, उन्हें सुनना एवं रात्रि के समय जागरण करना, तभी व्रत सच्चा कहा जाएगा। शास्त्रों में भी उसी का नाम ‘एकादशी’ है।”

इतना कहकर श्रीजीमहाराज मौन हो गये और सन्त भजन गाने लगे। कुछ देर के बाद श्रीजीमहाराज पुनः बोले कि, “ब्रह्मा ने जब सर्वप्रथम सृष्टि रचना की, तब उन्होंने समस्त प्रजाजनों से कहा कि, ‘आप सब यज्ञ करना। उस यज्ञ द्वारा आपके लिए समस्त पुरुषार्थों की सिद्धि होगी तथा सृष्टि की भी वृद्धि होगी। अतः यज्ञ अवश्य करना।’ तत्पश्चात् ब्रह्मा ने वेदों में कहे गए अनेक प्रकार के यज्ञों की विधिवत् जानकारी दी। उनमें जो प्रवृत्तिमार्गी लोग थे, उनको राजसी, तामसी आदि प्रकार के यज्ञ दिखाए और जो निवृत्तिमार्गी लोग थे, उनको ब्रह्माजी ने सात्त्विक यज्ञों का विधान बताया। उन्हीं यज्ञों का विवरण श्रीकृष्ण भगवान ने भगवद्‌गीता में भी किया है। हम तो निवृत्तिमार्गी हैं, अतः हमें सात्त्विक यज्ञ करना चाहिए। परन्तु, जिनमें पशुओं का वध किया जाता हो, ऐसे राजसिक-तामसिक यज्ञ हमें नहीं करना चाहिए।

“सात्त्विक यज्ञ की विधि इस प्रकार है कि, दस इन्द्रियाँ और ग्यारहवाँ मन जिन-जिन पंचविषयों में आसक्त हों, वहाँ से वापस लौटाकर ब्रह्माग्नि में उनकी आहुति कर देनी चाहिए। इसी का नाम योगयज्ञ है।२२१ इस प्रकार होम करते रहने पर जैसे यज्ञकर्ता को भगवान दर्शन देते हैं, वैसे ही उस योगयज्ञ के करनेवाले के हृदय में अपना स्वरूप जो ब्रह्म है, उसमें परब्रह्म श्रीपुरुषोत्तम प्रकट हो जाते हैं; यह योगयज्ञ का फल है। और, अन्तर्दृष्टिपूर्वक आचरण हो, वह ज्ञानयज्ञ कहा जाता है। यदि कोई पूछे कि, ‘अन्तर्दृष्टि क्या है?’ तो इसका उत्तर यह है कि बाहर अथवा भीतर भगवान की मूर्ति के समक्ष चित्तवृत्ति को स्थिर रखना ही अन्तर्दृष्टि है, और इसके बिना यदि अन्तर्दृष्टि करके भी बैठ गया, तो बाह्यर्दृष्टि ही है। अतः बाहर भगवान का दर्शन तथा पूजन तथा भगवान की कथा-कीर्तन इत्यादिक जो-जो भगवान सम्बंधी क्रियाएँ हैं, वह सभी अन्तर्दृष्टि है; और वही सभी क्रियाएँ ज्ञानयज्ञ कहा जाता है। और, उसी भगवान की मूर्ति को अन्तःकरण में धारण करके उसका पूजन एवं वन्दन आदि करना वह भी अन्तर्दृष्टि तथा ज्ञानयज्ञ कहा गया है। अतः प्रत्येक सत्संगी को ऐसा ज्ञानयज्ञ अखंड होता रहता है। और समाधि तो किसी को लगती है, और किसी को नहीं लगती है, वह तो परमेश्वर की इच्छा से ऐसा होता है अथवा कहीं-कहीं भक्त की अपरिपक्वता के कारण भी ऐसा होता है।

“और, कुछ मूर्ख लोग कहते हैं कि, ‘गोपिकाओं की रसिकता सम्बंधी भक्तिमय भजन मत गाइए, केवल ‘निर्गुण’ मार्गी भजन-गान ही करिए।’ तथा जो मनुष्य निर्वस्त्र घूमते-फिरते हैं, उन्हें मूर्ख लोग निर्गुण कहते हैं। परन्तु यदि निर्वस्त्र होकर भ्रमण करनेवालों को निर्गुण कहा जाए, तो कुत्ते, गधे आदि सभी ‘निर्गुण’ ही कहे जाएँगे। अतः यह मूर्खों की अपनी समझ है। जबकि ज्ञानी भक्त यह मानता है कि, ‘भगवान का स्वरूप ही निर्गुण है तथा जिस-जिसका सम्बंध भगवान के साथ हुआ है, वे सब निर्गुणमार्गी हैं। तथा जिन-जिन कथा-कीर्तन में भगवान के स्वरूप का सम्बंध है, वे सभी निर्गुण कहलाते हैं; और जिन कथा-कीर्तन में भगवान का सम्बंध नहीं है, तो समझ लीजिए कि वह मायिक गुणों से युक्त है, अतः वे सगुण ही कहलाते हैं। और जिसको भगवान की प्राप्ति नहीं हुई है, फिर भले ही वह क्यों न निर्वस्त्र ही घूमते रहे, उन्हें निर्गुण नहीं कहा जा सकता। और, जिसको भगवान की प्राप्ति हुई हो, वह चाहे गृहस्थाश्रमी हो अथवा त्यागी, परन्तु वह निर्गुण ही कहलाता है।’ इसलिए भगवान को प्राप्त करने का मार्ग ही निर्गुणमार्ग है। ऐसे लोग जो कुछ भी क्रिया करें, परन्तु वे निर्गुण क्रिया ही है। और, जिसका भगवान के साथ सम्बंध हो गया है, उस मनुष्य के भाग्य का पार ही नहीं रहता। क्योंकि भगवान का सम्बंध एक ही जन्म के पुण्यों से सम्भव नहीं होता। श्रीकृष्ण भगवान ने गीता में कहा है:

‘अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो याति परां गतिम्।’

“इस श्लोक का अर्थ यह है कि: ‘अनेक जन्मों के संचित पुण्यों से जो संसिद्ध हुआ है, ऐसा पुरुष ही परमपद को प्राप्त कर लेता है।’ वह परमपद क्या है? तो प्रत्यक्ष भगवान की प्राप्ति ही परमपद है। श्रीकृष्ण भगवान ने यूं भी कहा है:

‘ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः।
मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति ॥’२२२

“इस श्लोक का अर्थ यह है कि: ‘इस संसार में भगवान के अंशरूपी जो जीव हैं, वे मन सहित पंच ज्ञानेन्द्रियों को पंचविषयों से खींचकर अपने वश में रखते हैं। और जो जीव भगवान के अंश नहीं हैं, उन्हें इन्द्रियाँ विषयों की ओर आकृष्ट करके अपनी इच्छा के अनुसार नचाती हैं।’ हम सब इन्द्रियों के द्वारा खींचे जाने से विषयों के प्रति आकृष्ट नहीं होते, अतः हम भगवान के अंश हैं, ऐसा मानकर हमें अत्यंत आनन्दमग्न रहते हुए भगवान का भजन करते रहना तथा सभी इन्द्रियों की वृत्तियों की भगवान के स्वरूप में आहुति दे देना तथा सदैव ज्ञानयज्ञ करते रहना चाहिए।

“और यज्ञरहित का कभी कल्याण नहीं होता। चारों वेद, सांख्यशास्त्र, योगशास्त्र, धर्मशास्त्र, अठारह पुराण, महाभारत, रामायण तथा नारद-पंचरात्र आदि समस्त शास्त्रों का यही सिद्धान्त है कि: ‘यज्ञरहित मनुष्य का कल्याण नहीं होता।’ इसलिए, हमारी भी यही आज्ञा है कि समस्त परमहंस तथा सभी सत्संगी ज्ञानयज्ञ२२३ करते रहना। इस प्रकार ज्ञानयज्ञ करते करते अपना स्वरूप जो ब्रह्म है, उसमें जब परब्रह्म भगवान का साक्षात्कार हो जाए, तो वही ज्ञानयज्ञ का फल है। ऐसा ज्ञानयज्ञ करते करते जब श्वेतद्वीप-स्थित निरन्नमुक्तों के सदृश हो गए, तब ज्ञानयज्ञ की विधि की अवधि समाप्त हो जाती है। परन्तु जब तक ऐसे न हो गए, तब तक समझ लेना चाहिए कि वह कार्य अधूरा रह गया। फिर भी, निरन्नमुक्त तुल्य होने की इच्छा अवश्य रखें।२२४ कभी श्रद्धारहित न हों एवं स्वयं को अपूर्ण भी न समझें। और जिस भगवान की प्राप्ति हुई है, इससे स्वयं को कृतार्थ मानकर, सावधान होकर ज्ञानयज्ञ करते ही रहना।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ८ ॥ १४१ ॥

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This Vachanamrut took place ago.


२२०. पद्मपुराण, उत्तर खण्ड: ३९/६७-१०५

२२१. जहाँ अन्य टीकाकारों ने इसका अर्थ योगसाधना या व्रत-उपवास किया है, वहाँ भगवान स्वामिनारायण ने इसका अर्थ ब्रह्मरूप हो, परब्रह्म की उपासना कहा है।

२२२. गीता (१५/७) तथा ब्रह्मसूत्र (२/३/४३) में जीवात्मा को अंशरूप कहा गया है, परंतु इस वचनामृत का निरूपण अन्य आचार्यों की अपेक्षा अत्यधिक तर्कशुद्ध एवं प्रेरक है।

२२३. ‘ज्ञानयज्ञ’ का अर्थ अंतर्दृष्टि है तथा योगयज्ञ का अर्थ ‘अपनी इन्द्रियों तथा अंतःकरण को ब्रह्म-अग्नि में आहुति देना’ है। इस प्रकार दो अर्थ निकालने के बाद यहाँ दोनों को एक ही बताते हैं। इसका अर्थ यह है कि वस्तुतः योगयज्ञ रूप इन्द्रियों तथा अंतःकरण की ब्रह्म-अग्नि में आहुति देना भी एक प्रकार से ‘अंतर्दृष्टि’ ही है, तथा अंतर्दृष्टिरूप ‘ज्ञानयज्ञ’ भी इन्द्रियों तथा अंतःकरण को सत्पुरुष में जुड़ जाने का योगयज्ञ ही है। दोनों एक ही होने से यहाँ फलदर्शन के लिए ‘ज्ञानयज्ञ’ ही कहा जाएगा।

२२४. वस्तुतः ब्रह्मस्वरूप सत्पुरुष में इन्द्रियाँ-अंतःकरण का होम करके अक्षरब्रह्म के साधर्म्य को प्राप्त कर भगवान की भक्ति-सेवा करना यही वचनामृत गढ़डा प्रथम ४०, वचनामृत लोया १२ आदि में उत्तम लक्ष्य मानकर स्वीकार किया है, उसी को यहाँ भी प्रधान ध्येय समझना चाहिए।

SELECTION
प्रकरण गढ़डा प्रथम (७८) सारंगपुर (१८) कारियाणी (१२) लोया (१८) पंचाळा (७) गढ़डा मध्य (६७) वरताल (२०) अमदावाद (३) गढ़डा अंत्य (३९) भूगोल-खगोल वचनामृतम् अधिक वचनामृत (११)

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