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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा मध्य ९

स्वरूपनिष्ठा, भगवत्स्वरूप का द्रोह

संवत् १८७८ में श्रावण शुक्ला चतुर्दशी (१२ अगस्त, १८२१) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में श्रीवासुदेव नारायण के मन्दिर के आगे मशरू की गद्दी पर विराजमान थे। उस समय आनन्दानन्द स्वामी ने पूजा की थी, इसलिए लाल किमखाब का चूड़ीदार पायजामा पहना था, लाल किमखाब की बगलबंडी पहनी थी, मस्तक पर सुनहरे पल्ले का कुसुम्भी फेंटा रखा था, कमर पर जरीदार शेला कस रखा था, गाढ़े आसमानी रंग का खेस कन्धे पर रखा था और हाथों में राखियाँ बाँधी थीं। उनके समक्ष मुनि तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

उस समय मुक्तानन्द स्वामी ने कहा कि, “भजनगान करते हैं।”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “सुनिए, परमेश्वर की वार्ता करते हैं।” तत्पश्चात् श्रीजीमहाराज बोले कि, “ज्ञानमार्ग को इस प्रकार समझना चाहिए कि, किसी भी तरह भगवान के स्वरूप का द्रोह न हो जाए। हाँ, कभी भगवान की आज्ञा का लोप हो गया, तो उसकी इतनी चिन्ता नहीं है, परन्तु भगवान के स्वरूप का द्रोह कभी नहीं होने देना चाहिए। यदि भगवान की आज्ञा का कुछ उल्लंघन हो गया, तो भगवान की प्रार्थना द्वारा भी उस (पाप) से छुटकारा मिल सकता है। परन्तु यदि भगवान के स्वरूप का द्रोह किया गया, तो उससे छुटकारा कभी नहीं हो सकता। इसलिए, विवेकशील पुरुष का भगवान की आज्ञा का पालन जितना सामर्थ्य हो उतना अवश्य करते रहना, परन्तु भगवान की मूर्ति का अतिशय बल रखना कि, ‘सर्वोपरि, सदा दिव्य, साकार मूर्ति एवं समस्त अवतारों के अवतारी भगवान का स्वरूप ही मुझे प्राप्त हुआ है।’

“और जो ऐसा समझता हो, उसे कदाचित् किसी कारणवश सत्संग से निकल जाना पड़े, फिर भी भगवान की मूर्ति से उसका अनुराग नहीं मिटता। हाल में भले ही वह सत्संग से बाहर है, किन्तु उसका देहान्त होने के पश्चात् अन्ततः वह अक्षरधाम में भगवान के सान्निध्य में पहुँचेगा। और, जो सत्संग में रहता होगा, तथा शास्त्रों के वचनों का भी पालन करता होगा, परन्तु उसे यदि भगवत्स्वरूप में निष्ठा सुदृढ़ नहीं है, तो वह देहत्याग करने के पश्चात् ब्रह्मा के लोक में जाएगा या किसी अन्य देवता के लोक में जाएगा, परन्तु पुरुषोत्तम भगवान के धाम में नहीं जाएगा! इसलिए, स्वयं को प्राप्त साक्षात् भगवान का जो स्वरूप है, उसे सदा दिव्य साकार मूर्ति तथा सर्व अवतारों के कारण और अवतारी समझना। ऐसा यदि उसको नहीं जाना, और उस स्वरूप को निराकार तथा अन्य अवतार के सदृश जाना, तो उसका द्रोह किया कहा जायगा।२२५

“जैसे अर्जुन को भगवत्स्वरूप का बल था, परन्तु राजा युधिष्ठिर को शास्त्रों के वचनों का बल अधिक था। बाद में जब महाभारत का युद्ध हुआ, तब श्रीकृष्ण भगवान ने अर्जुन से कहा कि:

‘सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥’२२६

“इस श्लोक का अर्थ यह है कि: ‘हे अर्जुन! तुम समस्त धर्मों को छोड़कर केवल मेरी ही शरण में आ जाओ, मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा। तुम किसी भी प्रकार की चिन्ता मत करो।’ अर्जुन ने इस वचन को मान लिया। यद्यपि अर्जुन द्वारा युद्ध में अनेक पापयुक्त कर्म हुए, फिर भी वे मन में लेशमात्र भी क्षुब्ध नहीं हुए, और भगवान के आश्रय का बल रखकर डटे रहे। जबकि युधिष्ठिर ने कोई पाप नहीं किया था, फिर भी उन्हें भगवान की आज्ञा की अपेक्षा शास्त्रों के वचनों में अधिक विश्वास था, इसलिए उन्होंने मान लिया था कि, ‘अब कभी भी मेरा कल्याण नहीं होगा।’ बाद में सभी ऋषियों, व्यासजी तथा स्वयं श्रीकृष्ण भगवान ने उनको समझाया, फिर भी क्षुब्धता नहीं छूटी। इसके पश्चात् श्रीकृष्ण भगवान युधिष्ठिर को भीष्म के पास ले गए, जहाँ उन्हें शास्त्र सम्बंधी कथा सुनवाई, तब उन्हें कुछ विश्वास हुआ, फिर भी अर्जुन के समान निःसंशय नहीं हुए। अतः बुद्धिमान को भगवत्स्वरूप का ही अतिशय बल रखना चाहिए। यदि भगवत्स्वरूप का वह बल लेशमात्र भी है तो उसके फलस्वरूप भीषण भय से भी रक्षा हो जाती है। श्रीकृष्ण भगवान ने भी गीता में कहा है:

‘स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्।’२२७

“इस श्लोक का अर्थ यह है कि: ‘भगवत्स्वरूप का थोड़ा-सा भी बल हो, तो वह भी भीषण भय से रक्षा करता है।’ जैसे अर्जुन को महाभारत के युद्ध में अनेक प्रकार के अधर्मों के बड़े-बड़े भय उपस्थित हुए, किन्तु उनसे अर्जुन की जो रक्षा हुई है, वह केवल भगवत्स्वरूप के बल के प्रताप से ही हुई है। इसलिए जिसे सबसे अधिक भगवत्स्वरूप का बल हो, वही एकांतिक भक्त कहलाता है और उसे ही दृढ़ सत्संगी भी कहते हैं।

“और, श्रीमद्भागवत में भी यही बात प्रधानरूप से मिलती है कि, ‘भले ही श्रुति-स्मृतियों की धर्म सम्बंधी आज्ञा को थोड़ा-बहुत छोड़ना पड़े, तो भी उसकी चिन्ता नहीं है, किन्तु भगवान का आश्रय बिलकुल नहीं छोड़ना चाहिए।’ और कितने ही लोग ऐसा सोचने लगते हैं कि, ‘इस प्रकार की बातों से (सदाचाररूप) धर्म का खंडन हो जाएगा,’ परन्तु यह वार्ता धर्म के खंडन के लिए नहीं है, बल्कि इसलिए है कि देश, काल, क्रिया, संग, मन्त्र, शास्त्र, उपदेश तथा देवता सभी शुभ और अशुभ दो प्रकार के होते हैं। उनमें से यदि अशुभ का योग हो गया और भक्त को कुछ विघ्न पड़ गया, तो भी यदि उसकी निष्ठा भगवान के स्वरूप में दृढ़ हो, तो वह मोक्षमार्ग से कभी भी नहीं गिरता। यदि भगवत्स्वरूप के प्रति उसकी निष्ठा में अपरिपक्वता रह गई, तो जिस दिन से वह धर्मच्युत होता है, तबसे वह यह मानने लगता है कि, ‘मैं नरक में गिर चुका हूँ।’ अतः जिसे भगवत्स्वरूप का बल रहता है, वही पक्का सत्संगी कहलाता है। अन्य सभी केवल गुणबुद्धिवाले ही हैं, और जिसे भगवत्स्वरूप में निष्ठा सुदृढ़ बनी हुई है, उन्हीं को शास्त्रों में भी एकान्तिक भक्त कहा गया है।

“इस समय तो सत्संग में जैसी वार्ता होती है, उसे यदि नारद-सनकादि तथा ब्रह्मादि देवता सुनें, तो सुनकर वे यही कहेंगे कि, ‘ऐसी वार्ता कभी सुनी भी नहीं है और आगे सुन भी नहीं पाएंगे। ऐसी बातें तो ‘न भूतो न भविष्यति’ की उक्ति को ही सार्थक करती हैं।’

“यद्यपि यह अतिशय सूक्ष्म वार्ता है, किन्तु ऐसी मूर्तिमान वार्ता होती है कि अत्यन्त जड़ बुद्धिवालों को भी समझ में आ जाती है। इसलिए इस समय जिन्हें सत्संग में प्रतीति हुई है, उनके पुण्य का पार ही नहीं लगता! ऐसा समझकर सत्संगी को अपने सम्बंध में कृतार्थपन मान लेना चाहिए। जिसकी भगवान में अतिशय प्रीति रही है, भले ही उसे यह वार्ता समझ में आए या न आए, वह कृतार्थ हो चुका है और उसे कुछ साधन करने शेष नहीं रहे। परन्तु जिसकी परमेश्वर में अतिशय प्रीति नहीं हुई, उसे तो भगवान के स्वरूप की महिमा को अवश्य समझ लेना चाहिए। अतः बुद्धिमान मनुष्य को यह वार्ता सोच-समझकर भगवान का आश्रय अति दृढ़ करना चाहिए यही मत सार का भी सार है।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ९ ॥ १४२ ॥

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This Vachanamrut took place ago.


२२५. इन वचनों से श्रीहरि की सर्वोपरिता अर्थात् श्रीहरि दूसरें अवतारों से अलग एवं परे हैं, यह अत्यंत स्पष्ट समझा जाता है। अक्षरब्रह्म गुणातीतानंद स्वामी इस वचनामृत को पढ़कर अनेक बार ‘सर्वोपरिता’ का निरूपण करते थे। (३/१२) स्वामी कहते थे कि (७/१५) अक्षरादिक सभी से परे, और अद्वैतमूर्ति, जो प्रकट पुरुषोत्तम में तथा दूसरे विभूति अवतार में भेद किस प्रकार है? तो जैसे तीर तथा तीर को फेंकनेवाला, तथा चक्रवर्ती राजा तथा ख़िराज देनेवाले अन्य राजा, दोनों में अंतर है, तथा जैसे सूर्य एवं सूर्यमंडल के अन्य ग्रहों में अंतर है, उसी प्रकार इस प्रकट पुरुषोत्तम में एवं अन्य राम-कृष्णादिक अवतारों में अंतर है, इस प्रकार प्रकट पुरुषोत्तम को सर्वोपरि जानना। यही निरूपण स्वामी नित्यानंदजी (बात: १४) तथा विधात्रानन्दजी (बात: १४) ने किया है।

२२६. गीता: १८/६६

२२७. गीता: २/४०

SELECTION
प्रकरण गढ़डा प्रथम (७८) सारंगपुर (१८) कारियाणी (१२) लोया (१८) पंचाळा (७) गढ़डा मध्य (६७) वरताल (२०) अमदावाद (३) गढ़डा अंत्य (३९) भूगोल-खगोल वचनामृतम् अधिक वचनामृत (११)

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