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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥
परब्रह्म पुरुषोत्तम
भगवान श्रीस्वामिनारायण के
॥ वचनामृत ॥
गढ़डा मध्य १०
निश्चयरूप गर्भ का जतन
संवत् १८७८ में श्रावण कृष्णा तृतीया (१६ अगस्त, १८२१) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन से घोड़ी पर सवार होकर श्रीलक्ष्मीवाड़ी में पधारे थे। उस फूलवाडी में वे आम्रवृक्ष के नीचे की वेदी पर उत्तर की ओर मुखारविन्द करके विराजमान थे। श्रीजीमहाराज ने श्वेत वस्त्र धारण किए थे। उनके समक्ष परमहंस तथा विभिन्न स्थानों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।
उस समय श्रीजीमहाराज बोले कि, “श्रीमद्भागवत में साकार ब्रह्म का प्रतिपादन किया गया है, फिर भी श्रीमद्भागवत का पाठ करनेवाले यदि परमेश्वर की भक्ति से रहित हों, तो उन्हें श्रीमद्भागवत से भी भगवान का स्वरूप निराकार ही लगता है। तथा द्वितीय स्कन्ध में जहाँ आश्रय का रूप प्रतिपादित किया है, वहाँ भी भगवान का स्वरूप भक्तिरहित पुरुष को निराकार प्रतीत होता है। परन्तु भगवान का स्वरूप निराकार नहीं है, क्योंकि भगवान से ही समस्त स्थावर-जंगम की सृष्टि होती है। यदि भगवान निराकार होते, तो उनसे साकार सृष्टि कैसे संभव हुई होती? जैसे आकाश निराकार है, तो उससे पृथ्वी द्वारा जैसे घटादिक आकार होते हैं, वैसे नहीं होते, उसी प्रकार ब्रह्मादि सृष्टि साकार है, तो उसके कर्ता परमेश्वर भी साकार ही हैं।
“श्रीमद्भागवत में अध्यात्म, अधिभूत तथा अधिदेव तीनों का आधार भगवान का स्वरूप ही बताया गया है। उस बात को सुनिये, अध्यात्म अर्थात् विराट पुरुष की इन्द्रियाँ, अधिभूत अर्थात् विराट पुरुष के पंच महाभूत तथा अधिदेव अर्थात् विराट पुरुष के इन्द्रियों के देवता ये सभी विराट में प्रविष्ट हुए फिर भी विराट जाग्रत नहीं हुए, परन्तु जब वासुदेव भगवान ने पुरुषरूप द्वारा विराट पुरुष में प्रवेश किया, तब विराट पुरुष अपनी प्रवृत्ति करने में समर्थ हो गए। ऐसे भगवान विराट पुरुष के अध्यात्म, अधिभूत तथा अधिदेव तीनों में तादात्म्य से (अंतर्यामीरूप से) निवास करते हैं, किन्तु स्वरूप (दिव्यरूप) से वे विराट पुरुष से भिन्न हैं। वही आश्रय करने योग्य स्वरूप है। जैसे अग्नि प्रकाशस्वरूप की दृष्टि से अरूप है, तथापि वह स्वयं मूर्तिमान है। इस विषय में एक कथा भी है कि जब अग्नि को अजीर्ण हुआ था, तब मूर्तिमान अग्नि श्रीकृष्ण भगवान तथा अर्जुन के पास आया था। वह जब खांडव वन जलाने गया, तब वही अग्निदेव ज्वालारूप होकर समग्र वन में व्याप्त हो गया। उसी प्रकार पुरुषोत्तम भगवान अपनी ब्रह्मरूप अन्तर्यामी शक्ति द्वारा समस्त प्राणियों में व्याप्त हैं तथा मूर्तिमान होकर सबसे भिन्न भी हैं। और, जो ब्रह्म है, वह पुरुषोत्तम भगवान की किरण है२२८ किन्तु स्वयं भगवान सदैव साकार मूर्ति ही हैं। अतएव, जो कल्याण का इच्छुक है, उसे भगवान को मूर्तिमान समझकर उनका आश्रय दृढ़ करक रखना चाहिए; तथा बात भी ऐसी करनी चाहिए कि किसी को भगवान का आश्रय हो, तो वह उन बातों से मिट न जाए। और, जिस प्रकार उदरस्थ गर्भ से स्त्री को पुत्ररूप फल का उदय होता है, वैसे ही जिसे भगवान के स्वरूप का निश्चयरूप गर्भ रहा हो, उसे भगवान के अक्षरधामरूपी फल की प्राप्ति होती है। अतः ऐसा उपाय करें कि जिससे उस निश्चयरूपी गर्भ को विघ्न उपस्थित न हो जाए और दूसरों से भी ऐसी बात करनी चाहिए, जिससे भगवान सम्बंधी निश्चयरूपी गर्भ का पात न हो जाए।”
इसके पश्चात् श्रीजीमहाराज वाड़ी से दादाखाचर के राजभवन में पधारे। और पूर्वी द्वार के कमरे के बरामदे में पलंग पर विराजमान हुए। उनके समक्ष परमहंस तथा विभिन्न स्थानों के हरिभक्त बैठे हुए थे।
श्रीजीमहाराज ने छोटे-छोटे परमहंसों को बुलाकर परस्पर चर्चा करने की आज्ञा दी। तब अचिन्त्यानन्द स्वामी ने प्रश्न किया कि, “ज्ञान, वैराग्य तथा भक्ति तीनों में से विशेष कौन है कि जिसके कारण भगवान के स्वरूप में प्रीति उत्पन्न होती जाती है?”
तब परमहंसों में से कोई भी इस प्रश्न का उत्तर न दे सके। इसके पश्चात् श्रीजीमहाराज बोले कि, “चलो, इस प्रश्न का उत्तर हम देते हैं और ज्ञान, वैराग्य एवं भक्ति के रूपों का पृथक्-पृथक् विवेचन करते हैं।
“जीवमात्र का ऐसा स्वभाव है कि: ‘जब वह उत्कृष्ट पदार्थ को देखता है, तब उससे निम्न प्रकार के पदार्थ से उसको प्रीति नहीं होती।’ उसी प्रकार भगवान के अक्षरधाम में जो सुख है, उसके आगे यह मायिक सुख तो कृत्रिम सा है। अचल सुख तो भगवान के धाम में ही है। इसलिए, परमेश्वर की बात सुनते-सुनते यदि भगवान सम्बंधी सुख ज्ञात हो जाए, तो जितना माया से उत्पन्न सुख है, वह सब तुच्छ प्रतीत हो जाता है। जैसे किसी के पास तांबे का सिक्का हो, और उसके बदले में उसे कोई सोने की मोहर दे दे, तब तांबे के सिक्के से उसका मोह नष्ट हो जाएगा; वैसे ही भगवान सम्बंधी सुख में दृष्टि पहुँचने पर जितने मायिक सुख हैं, उन सभी से वैराग्य हो जाता है और एकमात्र भगवान की मूर्ति से ही प्रेम हो जाता है। इसे ही वैराग्य का स्वरूप बताया गया है।
“अब ज्ञान का स्वरूप बताते हैं। ज्ञान-निरूपण में दो शास्त्र हैं। एक है, सांख्यशास्त्र तथा दूसरा, योगशास्त्र। उनमें सांख्यशास्त्र का मत है कि जिस प्रकार आकाश स्वयं पृथ्वी, जल, प्रकाश तथा वायु में व्याप्त है और बिना आकाश के एक अणु भी कहीं खाली नहीं है, फिर भी पृथ्वी आदि के विकार आकाश को स्पर्श नहीं करते, उसी प्रकार पुरुषोत्तम भगवान को आकाश की तरह कोई भी मायिक विकार स्पर्श नहीं करता। कृष्णतापनीयोपनिषद् में इस सिद्धान्त का वर्णन किया गया है, कि जब दुर्वासा ऋषि वृन्दावन में आए, तब श्रीकृष्ण भगवान ने गोपियों से कहा कि, ‘दुर्वासा भूखे हैं, इसलिए तुम सब उनके लिए थाल लेकर जाओ।’ गोपियों ने पूछा कि, ‘यमुनाजी बीच में हैं, तो हम उस पार कैसे लगेंगे?’ तब श्रीकृष्ण भगवान ने कहा कि, ‘यमुनाजी से तुम ऐसा कहना कि, “श्रीकृष्ण यदि सदैव ब्रह्मचारी रहे हों, तो मार्ग दे देना।”’ यह वचन सुनकर गोपियाँ हँसती हुईं यमुना तट पर जा पहुँचीं और उन्होंने इस बात को दोहराया। तब यमुनाजी ने तत्काल मार्ग दे दिया और वे ऋषि के पास पहुँच गईं। उन्होंने ऋषि को भोजन कराया। ऋषि उनके थालों के सभी खाद्यपदार्थ खा गए। बाद में गोपियों ने उनसे कहा कि, ‘हम अपने घर वापस कैसे जाएं? बीच में यमुनाजी हैं!’ ऋषि ने पूछा कि, ‘वहाँ से यहाँ किस प्रकार आई थीं?’ गोपियों ने बताया कि, ‘श्रीकृष्ण ने हमसे यह कहा था कि, “यमुनाजी से कहना कि यदि श्रीकृष्ण सर्वदा बालब्रह्मचारी रहे हों, तो वे मार्ग दे दें।” बाद में यमुनाजी ने मार्ग दे दिया, जिससे हम सब आपके पास आ गईं।’ यह सुनकर ऋषि बोले कि, ‘अब यमुनाजी से यह कहना कि, “यदि दुर्वासा सदैव उपवासी रहे हों, तो मार्ग दे देना।”’ गोपियाँ हँसती-हँसती वहाँ गईं और उन्होंने यही बात कह दी, तब यमुनाजी ने उन्हें तत्काल मार्ग दे दिया। इन दोनों घटनाओं को देखकर गोपियों को अत्यन्त आश्चर्य हुआ। अतः भगवान का स्वरूप आकाश के समान निर्लेप है तथा समस्त क्रियाओं को करते हुए भी भगवान अकर्ता हैं। वे सबके संगी होते हुए भी अत्यंत असंगी हैं। इस प्रकार, सांख्यशास्त्र भगवान के स्वरूप को निर्लेप बताता है, यह सांख्य मतानुसार ‘ज्ञान’ है।
“अब योगशास्त्र का मत बताते हैं, उसे सुनिए। योगशास्त्र का मत यह है कि जिसे भगवान का ध्यान करना हो, वह सर्वप्रथम अपनी दृष्टि स्थिर करें। दृष्टि को स्थिर करने के लिए भगवान की प्रतिमा अथवा किसी अन्य पदार्थ में दृष्टि को एकाग्र रखना। इस प्रकार एक ही आकार को देखते रहने पर दृष्टि स्थिर हो जाती है और उसके साथ-साथ अन्तःकरण भी स्थिर हो जाता है। जब अन्तःकरण स्थिर हो जाए, तो बाद में भगवान की मूर्ति को हृदय में धारण करें। इस प्रक्रिया में योगी बिना प्रयास के सहजतापूर्वक हृदय में धारण कर लेता है। यदि योगी पहले से ही अभ्यास द्वारा अंतःकरण को स्थिर नहीं करता, तो भगवान के ध्यान के समय अन्य कितनी ही उलझनें विघ्न डालने के लिए खड़ी हो जाती हैं। अतः योगशास्त्र का सिद्धांत यह है कि सबसे पहले अभ्यास द्वारा चित्त-वृत्ति को स्थिर कर लेना चाहिए, इसके पश्चात् उसे भगवान के साथ सम्बद्ध कर देना चाहिए। इस बात को समझ लेना ही योगशास्त्र सम्बंधी ज्ञान है। इस प्रकार, इन दो शास्त्रों के मतानुसार अपनी समझ को सुदृढ़ बनाना, वही ज्ञान है।
“अब भक्ति की रीति बताते हैं। जब समुद्र-मन्थन किया गया, तब समुद्र में से लक्ष्मीजी प्रकट हुईं। बाद में लक्ष्मीजी ने हाथ में वरमाला लेकर यह विचार किया कि, ‘वरण करने योग्य कौन है, जिसका वरण मैं कर सकूँ।’ बाद में लक्ष्मीजी ने इस बात का पता लगा लिया कि जिसमें रूप है, उसमें गुण नहीं है और जिसमें कुछ गुण है, उसमें रूप नहीं है। इस प्रकार उन्होंने अनेक में बड़े-बड़े कलंक देखे। समस्त देवताओं एवं दैत्यों को उन्होंने कलंक से भरे हुए देखा और केवल भगवान को ही उन्होंने सर्वगुण सम्पन्न, सर्वदोषों से रहित तथा सर्व सुखनिधान पाया। तब लक्ष्मीजी की भक्ति भगवान में सुदृढ़ हो गई। बाद में उन्होंने अत्यन्त प्रेमपूर्वक भगवान को वरमाला पहनाकर उनसे विवाह कर लिया। इस प्रकार, कल्याणकारी गुणों को जानना और परमेश्वर का दृढ़ आश्रय ग्रहण करना, उसी का नाम भक्ति है।”
यह सुनकर मुक्तानन्द स्वामी ने श्रीजीमहाराज से पूछा कि, “हे महाराज! परमेश्वर से प्रीति होने के सम्बंध में ज्ञान, वैराग्य तथा भक्ति में से किसका अधिक प्रधान बल रहता है, यह बात हमें समझ में नहीं आई।”
तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “भक्ति में अधिक सामर्थ्य है। ज्ञान-वैराग्य यद्यपि समर्थ तो हैं, परन्तु भक्ति जितने समर्थ नहीं हैं। भक्ति तो अतिदुर्लभ है। भक्तिमान पुरुषों के लक्षण ये हैं कि जब जीवों के कल्याण के लिए भगवान मनुष्याकार मूर्ति धारण करके पृथ्वी पर विचरण करते हैं, तब भगवान के कितने ही चरित्र दिव्य तथा कितने ही चरित्र मायिक जैसे लगते हैं। जैसे कि जब भगवान ने कृष्णावतार धारण किया, तब उन्होंने देवकी तथा वसुदेव को चतुर्भुज-रूप में दर्शन दिया, गोवर्धन पर्वत उठाया और कालीय नाग को निकालकर यमुनाजी का जल निर्विष कर दिया, ब्रह्मा का मोह निवारण किया, अक्रूरजी को यमुना-जल में दर्शन दिया, तथा मल्ल, हस्ति और कंसादि दुष्टों को मारकर समस्त यादवों का कष्ट दूर किया। उसी प्रकार, रामावतार के समय उन्होंने धनुष तोड़ा तथा रावणादि दुष्टों का संहार कर समस्त देवताओं का कष्ट-निवारण किया इत्यादि पराक्रम भगवान के दिव्य चरित्र कहलाते हैं। परन्तु सीताहरण के समय रघुनाथजी रोते-रोते पागल जैसे हो गए तथा कृष्णावतार के अवसर पर वे कालयवन के भय से भाग निकले तथा जरासंध के समक्ष पराजित हो गए और अपनी राजधानी मथुरा को छोड़कर समुद्री द्वीप में जाकर बस गए इत्यादि भगवान के चरित्र मायिक जैसे लगते हैं।
“अतः दिव्य चरित्रों में तो पापीजनों तक को दिव्यता प्रतीत होती है, परन्तु जब भगवान प्राकृत चरित्र करें, तब भी जिसको दिव्यता दिखाई पड़े, वही परमेश्वर का सच्चा भक्त है। और, भगवान ने गीता में कहा है कि:
‘जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः।त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ॥’२२९
“इस श्लोक का अर्थ यह है कि, ‘हे अर्जुन! मेरे जन्म एवं कर्म दिव्य हैं। जो पुरुष उनकी दिव्यता को समझ लेता है, देहत्याग के पश्चात् उसका पुनर्जन्म नहीं होता, बल्कि वह मुझे ही प्राप्त कर लेता है।’ अतः भगवान जो दिव्य चरित्र दिखाते हैं, वे भक्त तथा अभक्त दोनों को दिव्य प्रतीत होते हैं, परन्तु जब भगवान मनुष्यों के समान प्राकृत चरित्र करते हैं, तब भी उनमें जिसे दिव्यता दिखाई पड़े और भगवान के उन चरित्रों में किसी प्रकार का दुर्भाव न रहे, ऐसी जिसकी निर्दोषबुद्धि हो, उसे ही परमेश्वर की भक्ति कहा जाता है। जो ऐसी भक्ति करे, वही भक्त कहलाता है। और, उक्त श्लोक में प्रतिपादित फल भी ऐसे भक्त को ही मिलता है।
“और, जैसे गोपियाँ भगवान की भक्त थीं, तो उन्होंने भगवान का किसी भी प्रकार से अवगुण नहीं सोचा। जबकि राजा परीक्षित ने गोपियों की बात सुननेमात्र से ही भगवान के चरित्र में संशय कर लिया। बाद में शुकजी ने उन्हें भगवान की सामर्थ्य दिखाकर उस संशय को नष्ट कर दिया। अतएव, भगवान जो भी चरित्र करें, उन्हें गोपियों के समान दिव्य मान लेना चाहिए, परन्तु उन्हें किसी प्रकार से प्राकृत भावयुक्त समझकर दुर्भाव नहीं रखना चाहिए। ऐसी भक्ति महादुर्लभ है और एक-दो जन्मों के पुण्यों से ऐसी भक्ति प्रकट नहीं होती, किन्तु अनेक जन्मों के संचित शुभ संस्कारों से ही गोपियों की जैसी भक्ति का उदय होता है। ऐसी भक्ति ही परमपद है। इसलिए, इस प्रकार की भक्ति ज्ञान तथा वैराग्य से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है। जिसके हृदय में ऐसी भक्ति हो, उसे भगवान से प्रीति होने में क्या शेष रह गया है? कुछ भी नहीं!”
॥ इति वचनामृतम् ॥ १० ॥ १४३ ॥
This Vachanamrut took place ago.
२२८. यहाँ ‘ब्रह्म’ शब्द वचनामृत गढ़डा प्रथम ४५ की तरह भगवान की अंतर्यामी शक्ति को निरूपित करता है, परंतु वह अक्षरधाम वाचक शब्द नहीं है।
२२९. गीता: ४/९