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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥
परब्रह्म पुरुषोत्तम
भगवान श्रीस्वामिनारायण के
॥ वचनामृत ॥
गढ़डा मध्य ११
सभी कर्म भक्तिरूप कैसे हों?
संवत् १८७८ में श्रावण कृष्णा पंचमी (१८ अगस्त, १८२१) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में श्रीवासुदेव नारायण के मन्दिर के सामने नीमवृक्ष के नीचे पलंग पर विराजमान थे। उन्होंने श्वेत वस्त्र धारण किए थे। उनके समक्ष मुनि तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।
उस समय श्रीजीमहाराज बोले कि, “जितने ग्रन्थ हैं उन सबको सुनकर कितने ही जीव अपनी यह धारणा बना लेते हैं कि ये ग्रन्थ धर्म, अर्थ तथा काम के निमित्त ही हैं। ऐसा समझकर ये जीव स्वयं भी धर्म, अर्थ और काम की उद्देश्यपूर्ति के लिए यज्ञ-व्रतादि शुभकर्म करते हैं। बाद में वे उन कर्मों का फल देवलोक अथवा ब्रह्मलोक या मृत्युलोक में भोग कर वहाँ से गिरते हैं और चौरासी लाख योनियों में जाते हैं। इसलिए, जो जीव धर्म, अर्थ और काम से प्रीति रखकर जो-जो सुकृत करते हैं, वे सब सात्त्विक, राजसिक तथा तामसिक होते हैं और उन कर्मों का फल उन्हें स्वर्गलोक, मृत्युलोक तथा पाताललोक में रहकर भोगना पड़ता है। परन्तु वे भगवान के गुणातीत धाम को नहीं पाते। और, जब मोक्ष ही नहीं होता, तब जन्म, मरण एवं नरकजन्य दुःख भी नहीं मिटते। इसलिए धर्म, अर्थ तथा काम सम्बंधी फल की इच्छा का परित्याग कर, यदि उन्हीं शुभ कर्मों को भगवान की प्रसन्नता के लिए किया जाए, तो वे ही शुभ कर्म भक्तिरूप होकर केवल मोक्ष के लिए फलदायी हो जाते हैं। इस विषय में यह श्लोक है:
‘आमयो येन भूतानां जायते यश्च सुव्रत!तदेव ह्यामयं द्रव्यं न पुनाति चिकित्सितम् ॥
एवं नृणां क्रियायोगाः सर्वे संसृतिहेतवः।
त एवात्मविनाशाय कल्पन्ते कल्पिताः परे ॥’२३०
“इस श्लोक का भी पूर्वोक्त भाव ही है। अतः यह वार्ता बड़ी अटपटी है, वह यदि पूर्णरूप से समझ में न आयी, तो भगवान के भक्त का व्यवहार भी अज्ञानी जीवों के समान ही देखकर उसका भी वह दुर्भाव ग्रहण कर लेता है; ऐसे अवगुण ग्रहण करनेवाला नारकी होता है। और, भगवान के भक्त एवं विमुख जीवों की क्रिया में बड़ा अन्तर रहता है, क्योंकि विमुख जीव जो-जो क्रिया करता है, वह अपनी इन्द्रियों के पोषण के लिए करता है; जबकि भगवान का भक्त मात्र भगवान तथा भगवद्भक्त की सेवा के लिए समस्त क्रियाएँ करता है। अतः हरिभक्त की जो क्रियाएँ होती हैं, वे भक्तिरूप होती हैं। तथा जो भक्ति है, वह तो नैष्कर्म्य ज्ञान का रूप है। इस कारण, हरिभक्त की समस्त क्रियाएँ नैष्कर्म्यरूप (अबन्धक) हैं। इस सन्दर्भ में भगवद्गीता का यह श्लोक है:
‘कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः।स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत् ॥’२३१
“इस श्लोक का अर्थ यह है कि: ‘भगवान का भक्त भगवान की प्रसन्नता के लिए जो-जो कर्म करता है, उसमें जो अकर्मात्मक ज्ञान को देखता है और विमुख व्यक्ति निवृत्तिमार्ग को अपनाकर अकर्मभाव से रहता हो, फिर भी उसे कर्मों में ही डूबा हुआ जो देखता है, वही सभी मनुष्यों में बुद्धिमान एवं ज्ञानी है और वही युक्त अर्थात् मोक्ष के लिए योग्य है। तथा ‘कृत्स्नकर्मकृत्’ अर्थात् सर्व कर्मों को करनेवाला है।’ इसलिए भगवान की आज्ञा अनुसार उनकी प्रसन्नता के लिए भगवान के भक्त जो-जो कर्म करते हैं, उनको देखकर यदि कोई उनके विषय में अवगुण ग्रहण करता है, तो उसके हृदय में अधर्म अपने परिवार के साथ आकर निवास कर लेता है!”
॥ इति वचनामृतम् ॥ ११ ॥ १४४ ॥
This Vachanamrut took place ago.
२३०. अर्थ: “हे सुव्रत! जिस प्रकार घृतादि वस्तुओं के अतिभक्षण से मनुष्यों में रोग उत्पन्न हो जाता है, उसका निवारण घृत द्वारा नहीं होता, बल्कि घृतादि वस्तुओं में औषधों को मिश्रित किया जाए, तो वे रोग का पूर्णतः मूलोच्छेद कर डालती हैं। वैसे ही मनुष्यों की समस्त क्रियाएँ (व्रत, यज्ञ, दानादि) अन्त में संसृति का कारण होती हैं। फिर भी, यदि वे ही क्रियाएँ परमेश्वर की भक्ति के रूप में की गई तो वे अनादि अज्ञान की निवृत्ति के साथ-साथ मोक्ष को भी सुलभ बना देती हैं।” (श्रीमद्भागवत: १/५/३३-३४)
२३१. गीता: ४/१८