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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा मध्य १२

आध्यात्मिक मार्ग की राजनीति

संवत् १८७८ में श्रावण कृष्णा षष्ठी (१९ अगस्त, १८२१) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में पश्चिमी द्वार के कमरे के बरामदे में श्रीवासुदेव नारायण के मन्दिर के सामने विराजमान थे। उन्होंने श्वेत वस्त्र धारण किए थे। उनके समक्ष परमहंस तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “एक बात कहता हूँ, उसे ध्यान से सुनिये और इस वार्ता में कल्याण के लिए केवल एक ही साधन बताते हैं। उस एक साधन में समस्त साधन आ जाते हैं। कल्याण के ऐसे एक प्रबल साधन के विषय में सुनिए। शरीर में जो आत्मा है, वह जानता है कि काम-क्रोधादि बुरी प्रकृतियाँ मेरे साथ जड़ चुकी हैं। इस प्रकार, जो काम-क्रोध आदि विकृतियाँ जिसमें मुख्य रूप से रहती हैं, उन विकारों के योग से वह अपने आपको ‘मैं कामी, क्रोधी तथा लोभी हूँ,’ इस प्रकार कुलक्षणों से युक्त मानता है। परन्तु, जीवात्मा में तो उनमें से एक भी कुलक्षण नहीं है। वास्तव में साधक ने मूर्खता के कारण उन दोषों को अपने में समाया हुआ मान लिया है।

“इसलिए, जिसको परमपद प्राप्त करने की इच्छा हो, उसे अपने भीतर कुछ पौरुष एवं शौर्य रखना चाहिए, परन्तु बिलकुल कायर होकर नहीं बैठना चाहिए। यह विचार भी करते रहना चाहिए कि, ‘जिस प्रकार इस देह में चार अन्तःकरण, दस इन्द्रियाँ तथा पाँच प्राण हैं, उसी तरह मैं जीवात्मा हूँ, फिर भी इस देह में सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण हूँ और सब (इन्द्रियों-अन्तःकरण) का नियन्ता हूँ।’ उसे ऐसा कभी नहीं मानना चाहिए कि, ‘मैं तुच्छ हूँ तथा अन्तःकरण एवं इन्द्रियाँ बलवान हैं।’

“जिस प्रकार से किसी बुद्धिहीन राजा की आज्ञा का पालन उसके परिवार के लोग भी न करते हों, तो इस बात की खबर गाँव के लोगों में भी पहुँच जाती है। फिर तो गाँव के लोग भी उसकी आज्ञा नहीं मानते और देशभर के मनुष्य भी इस बात को सुनते ही उस राजा की आज्ञा को नहीं मानते। बाद में वह राजा ग्लानिवश असमर्थ हो जाता है और किसी पर भी अपना आदेश नहीं चलाता। वैसे ही राजा के स्थान पर जीवात्मा है, तथा उसके कुटुम्ब के स्थान पर अन्तःकरण है। गाँव और देश के लोगों के स्थान पर इन्द्रियाँ हैं। और जब यह जीवात्मा पौरुषहीन होकर बैठ जाती है, तो अन्तःकरण पर आदेश चलाकर उसे परमेश्वर के सम्मुख करना भले ही चाहे, परन्तु अन्तःकरण उसका कहना नहीं मानेगा। और, इन्द्रियों को वश में रखना भी चाहे, परन्तु इन्द्रियाँ भी उसके वश में नहीं रहेंगी। फिर तो यह जीव भले ही कायानगर का राजा है, परन्तु वह रंक की तरह दीन-हीन होकर रहता है। जब राजा पौरुषहीन हो जाता है, तब उसके नगर के लोग साँड की तरह उस पर जमकर बैठ जाते हैं और राजा के प्रत्येक आदेशों की अवहेलना करने लगते हैं। उसी प्रकार से जीव के कायानगर में जो कामादिक दोष राजा नहीं हैं, वे भी राजा होकर बैठ जाते हैं और उस जीव की सत्ता लेशमात्र भी चलने नहीं देते।

“अतः जिसे कल्याण की चाहना हो, उसे इस प्रकार कायरता नहीं रखनी चाहिए और वही उपाय करना चाहिए जिससे उसका अपना अन्तःकरण एवं अपनी इन्द्रियाँ अपनी आज्ञा का पालन किया करें। जिस प्रकार राजा राजनीति की शिक्षा लेकर, फिर अपने राज्य में अपना शासन चलाता है, वह प्रजा द्वारा दबाव डाले जाने से दबता नहीं है। परन्तु, यदि उसे राजनीति का ज्ञान न हो, तो प्रजा उसकी आज्ञा नहीं मानती; ऐसी स्थिति में प्रजा को मारने लगे तो उसका पूरा राज्य ही उजड़ जाता है। और प्रजा उसकी आज्ञा की अवहेलना करने लगती है, तो वह दुःखी रहा करता है। इस तरह बिना राजनीति को जाने दोनों प्रकार से हानि होती है। उसी प्रकार से जीव भी ‘राजनीति’ की शिक्षा लिए बिना काया-नगर में अपना शासन चलाने जाएगा, तो उससे उसे सुख नहीं मिलेगा।”

तब मुक्तानन्द स्वामी ने श्रीजीमहाराज से पूछा कि, “कल्याण की इच्छा रखनेवाले पुरुष को राजनीति का अध्ययन किस प्रकार करना चाहिए?”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “यह राजनीति तो इस तरह पढ़ना कि सबसे पहले भगवान का माहात्म्य अच्छी तरह समझना। बाद में भगवान की मूर्ति का ध्यान करके मन को वश में कर लेना। इसके पश्चात् भगवान की कथा सुनकर अपनी श्रोत्रेन्द्रिय को वश में कर लेना। परन्तु, लौकिक बातें श्रोत्र को कभी सुनने ही देना नहीं चाहिए! इसी प्रकार त्वचा केवल भगवान तथा उनके भक्तजनों का ही स्पर्श करे तथा नेत्र केवल परमेश्वर तथा उनके सेवकों का ही दर्शन करे और जीभ निरन्तर भगवद्‌गुणों का ही गान करे एवं भगवान के प्रसाद का ही रसास्वादन करे। इसके उपरांत नासिका केवल भगवान के प्रसादी-पुष्पादि की ही सुगन्ध ले। परन्तु किसी भी इन्द्रिय को कुमार्गगामी नहीं होने दे। इस प्रकार जो आचरण करता है, उसके देहरूपी नगर में कोई भी आज्ञालोप नहीं कर सकता। जो पुरुष इस प्रकार पुरुषार्थपूर्वक आचरण रखता है तथा कायरता का अच्छी तरह त्याग कर देता है, वही कल्याण पथ पर अग्रगामी हुआ है। यही स्वभावों पर जीत पाने का सबसे बड़ा उपाय है। और यदि पुरुषप्रयत्नरूपी उपाय को सावधान होकर करे तो जितने कल्याण के लिए साधन हैं, सभी पुरुषप्रयत्नरूपी साधन में समाविष्ट हो जाते हैं। इसलिए, पुरुषप्रयत्न ही कल्याण के लिए सबसे बड़ा साधन माना गया है।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ १२ ॥ १४५ ॥

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