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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा मध्य १३

श्रीहरि के स्वरूप का ज्ञान; यथार्थ निश्चय

संवत् १८७८ में श्रावण कृष्णा अमावास्या (२७ अगस्त, १८२१) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में श्रीवासुदेव नारायण के मन्दिर के बरामदे में गद्दी पर विराजमान थे। उन्होंने श्वेत धोती धारण की थी, सफ़ेद चादर ओढ़ी थी तथा मस्तक पर श्वेत पाग बाँधी थी। उनके समक्ष मुनि तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

उस समय श्रीजीमहाराज ने अपनी दोनों भुजाओं को ऊँचा उठाकर सबको शांत होने का संकेत किया, फिर अपने मुखारविन्द के समक्ष स्तुति करके बैठे हुए सन्तों को सम्बोधित करते हुए श्रीजीमहाराज कहने लगे कि, “हे सन्तो! आप लोगों में जो बड़े-बड़े सन्त हों और बात को समझते हों, वे आगे आकर बैठें और मैं जो एक बात कहता हूँ उसे सब ध्यान देकर सुनें। मुझे यह बात जो करनी है, वह किसी प्रकार का दम्भ पोसने के लिए नहीं करनी है। और मान या अपने बड़प्पन को बढ़ाने के लिए भी नहीं करनी है। वास्तव में हम यह जानते हैं कि, ‘यदि यह बात इन समस्त साधुओं तथा हरिभक्तों में से किसी की भी समझ में आ जाए, तो उसकी आत्मा का अतिशय कल्याण हो जाए।’ इसी प्रयोजन से हम यह बात करते हैं। यह जो बात है, उसे मैं देखता हूँ तथा अपने अनुभव से भी मैंने उसे सिद्ध किया है और वह समस्त शास्त्रों द्वारा भी प्रामाणित है। यद्यपि यह बात सभा में चर्चा करने योग्य नहीं है, फिर भी सभा में इसका उल्लेख कर रहा हूँ। जैसे कि:

“मुझे सहज स्वाभाविक रूप से ऐसा सिद्ध है कि इस संसार में जो अति सुन्दर शब्द, अति सुन्दर स्पर्श, अति सुन्दर गन्ध, अति सुन्दर रस एवं अति सुन्दर रूप आदि पंचविषय हैं, उनमें यदि मैं अपने मन को आसक्त करना चाहूँ, तो भी वह उनमें आसक्त नहीं होता, बल्कि उनसे अत्यन्त उदासीन रहता है। मुझे तो अच्छे पंचविषय हों अथवा बुरे पंचविषय, दोनों में समान भाव ही रहता है और मेरे लिए राजा और रंक भी समान लगते हैं। तथा त्रिलोकी का राज्य शासन करना और भिक्षा माँगकर खाना दोनों समान लगते हैं। और, हाथी पर बैठना तथा पैदल चलना वह भी समान लगता है। और, कोई चन्दन अथवा पुष्प या अच्छे वस्त्र एवं आभूषण अर्पित करे अथवा कोई धूल की वर्षा करे, दोनों में समान भाव है। और, कोई मान-सम्मान करे अथवा अपमान करे, दोनों भी समान लगते हैं। तथा सोना, चाँदी, हीरा हो अथवा कुड़ा या कचरा हो, दोनों में मेरा समान भाव ही रहता है। मुझे ऐसा नहीं लगता कि यह हरिभक्त बहुत बड़ा है और वह हरिभक्त छोटा है, मुझे तो सभी हरिभक्त समान ही लगते हैं।

“और, मेरे अन्तःकरण में अति तीव्र वैराग्य है, फिर भी मुझे उसका भार नहीं लगता। जैसे किसी ने सिर पर पत्थर उठाया हो अथवा रुपयों, एवं स्वर्णमुद्राओं की थैली कमर में लटकायी हो, तो उसे इनका बोझ महसूस होता है; परन्तु मुझे किसी प्रकार के गुणों का बोझ महसूस नहीं होता। और, मुझमें जो सद्धर्म है और मैं ब्रह्म हूँ - ऐसा जो ब्रह्मज्ञान है उसका अहं भी मुझे किसी तरह महसूस नहीं होता। और, बाह्यरूप से मैं किसी पदार्थ की प्रशंसा करता हूँ या उनकी आलोचना भी करता हूँ, वह तो मैं जानबूझकर करता हूँ। और, जिस-जिस पदार्थ में इन्द्रियों की वृत्तियों को बलपूर्वक जोड़ता हूँ, तो अत्यंत ही कठिनाई से उन पदार्थों तक मेरी वृत्तियाँ जाती हैं; जब मैं इन्हें शिथिल करता हूँ, तो तुरन्त वे लौटकर अन्तर सम्मुख हो जाती हैं। उदाहरण रूप आकाश में फेंका गया पत्थर उतना ही दूर जाता है, जितना फेंकनेवाले की कलाई में जोर होता है, फिर वह पत्थर पृथ्वी पर गिर जाता है। और, जैसे बहुत कमज़ोर पशु को मनुष्य जब तक बलपूर्वक ऊँचा उठाकर रखता है, तब तक वह उसी दशा में रहता है, फिर हाथ हटा लेने पर नीचे गिर पड़ता है; और, कोई बलवान पुरुष दाँतों से पूरी सुपारी को तोड़ डालता हो, परन्तु जब वह दस-बीस नीबू चूस लेता है तब वह भूने हुए चने को भी बहुत मुश्किल से चबा सकता है; वैसे ही विषयों के सन्मुख वृत्तियों को बलपूर्वक जोड़ते हैं, तब वह कठिनाई से जुड़ पाती हैं।

“यह जो मुझे स्वाभाविक सिद्ध है, उसका क्या कारण है? तो मेरी इन्द्रियों की वृत्ति प्रतिलोम होकर हृदयाकाश में सदैव स्थित रहती है। और, उस हृदयाकाश में अतिशय तेज दिखाई पड़ता है। जैसे वर्षाकाल में आकाश में सर्वत्र बादल छाये रहते हैं, वैसे ही मेरे हृदय में सर्वत्र तेज ही तेज व्याप्त रहा करता है। उस तेज में एकमात्र भगवान की मूर्ति ही दिखाई पड़ती है, जो अत्यन्त प्रकाशमय है; यद्यपि वह मूर्ति घनश्याम है, परन्तु वह अतिशय तेज के कारण श्याम नहीं, बल्कि अत्यन्त श्वेत दिखाई पड़ती है। और वह मूर्ति द्विभुज है। उस मूर्ति के दो चरण हैं। वह अतिशय मनोहर है। वह मूर्ति चतुर्भुज अथवा अष्टभुज या सहस्रभुज नहीं है। वह मूर्ति अतिसौम्य है, और मनुष्य के जैसी उसकी आकृति है, तथा किशोरस्वरूप है। वह मूर्ति उस तेज में कभी खड़ी, तो कभी बैठी हुई और कभी घूमती-फिरती दिखाई पड़ती है। और, उस मूर्ति के चारों ओर मुक्तों के मंडल बैठे हुए हैं; वे सभी मुक्त एकदृष्टि से उन भगवान की मूर्ति की ओर देख रहे हैं। उस मूर्ति को हम प्रकट प्रमाणरूप में अभी भी देखते हैं, तथा जब सत्संग में नहीं आए थे, तब भी देखते थे और माता के गर्भ में रहने पर भी देखते थे, और गर्भ में आने के पहले भी उसे देखा करते थे। तथा हम बोलते हैं, यह भी वहाँ बैठे हुए ही बोलते हैं, और आप सब भी वहाँ ही बैठे हैं, ऐसा मैं देखता हूँ, परन्तु यह गढ़डा शहर या यह बरामदा आदि बिल्कुल दिखाई नहीं पड़ता। और, जब इस स्वरूप का ज्ञान जिसे हो जाता है, उसको हमारे समान किसी भी विषयसुख में आसक्ति रहती ही नहीं है। और, उस स्वरूप को आप भी देखते हैं, परन्तु वह पूर्णतः आपकी समझ में नहीं आता है, इसीलिए जब इस स्वरूप की उपरोक्त वार्ता यथार्थ रूप से समझ में आ जाएगी, तब पंचविषयों या काम-क्रोधादि स्वभावों पर विजय प्राप्त करने में प्रयास करना नहीं पड़ेगा, बल्कि वे सहज ही रूप से जीते जाएँगे। यह जो एकरस तेज है, उसे आत्मा कहें या ब्रह्म कहें अथवा अक्षरधाम कहें; तथा उस प्रकाश में भगवान की जो मूर्ति है, उसे आत्मा का तत्त्व कहें अथवा परब्रह्म एवं पुरुषोत्तम कहें। वे ही भगवान अपनी इच्छा से जीवों का कल्याण करने के लिए रामकृष्णादि रूप को धारण करके युग-युग में प्रकट होते रहते हैं। यद्यपि वे भगवान इस लोक में मनुष्य-सदृश दिखाई पड़ते हैं तथापि वे मनुष्य जैसे नहीं हैं, वे तो अक्षरधाम के स्वामी हैं। श्रीकृष्ण भगवान ने गीता में कहा है:

‘न तद्भासयते सूर्यो न शशांको न पावकः।
यद्‌गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ॥’२३२

“अतः श्रीकृष्ण भगवान यद्यपि मनुष्य-सदृश दिखाई पड़ते थे, तथापि वे अक्षरातीत कैवल्यमूर्ति ही हैं। और, भगवान जो मनुष्यदेह धारण करते हैं, उनकी उस मूर्ति का जब कोई पुरुष ध्यान करता है, तब उस ध्यान करनेवाले को वह मूर्ति अक्षरधाम में तेजोमय एवं कैवल्यस्वरूप प्रतीत होती है। तथा ध्यान के करनेवाले का जीव माया को पार कर परमपद को प्राप्त कर लेता है। इसीलिए, भगवान मनुष्यदेह धारण करने पर भी कैवल्यरूप ही हैं। और, वह भगवान जिस स्थान पर विराजमान हों, वह स्थान भी निर्गुण है, तथा उन भगवान के वस्त्र, अलंकार, वाहन, परिचर्या करनेवाले सेवक तथा खान-पान आदि जो-जो पदार्थ भगवान से सम्बंध रखते हैं, वे सभी निर्गुण हैं। इस प्रकार जिसने भगवान के स्वरूप को पहचान लिया, उसको हमारी तरह पंचविषयों में कहीं भी आसक्ति नहीं रहती है और वह स्वतन्त्र हो जाता है।

“और, ये अक्षरातीत जो पुरुषोत्तम भगवान हैं, वे ही समस्त अवतारों के कारण हैं; और ये सभी अवतार पुरुषोत्तम में से प्रकट होते हैं और पुरुषोत्तम में ही पुनः लीन हो जाते हैं।२३३ वे भगवान जब मूर्ति धारण करके पुनः अन्तर्धान हो जाते हैं, तब भगवान की वह मूर्ति कभी तो मनुष्य की तरह इस पृथ्वी पर पड़ी रहती है, जैसे रुक्मिणीजी श्रीकृष्ण की मूर्ति को गोदी में लेकर जल मरी तथा ऋषभदेव की देह दावानल में जल गई, ऐसा भी होता है; और कभी वह मूर्ति अस्थि-मांस सहित दिव्यभाव को प्राप्त करके अन्तर्धान हो जाती है। तथा भगवान जब प्रकट होते हैं, तब वे कभी तो स्त्री के उदर से जन्म लेते हैं और कभी स्वेच्छानुसार अपने इच्छित स्थान से प्रकट होते हैं। इस प्रकार भगवान की जन्म लेने एवं देहोत्सर्ग करने की रीति अलौकिक है। जब भगवान के ऐसे स्वरूप को दृढ़तापूर्वक समझेंगे तो आपको किसी भी प्रकार का विघ्न कल्याण के मार्ग में नहीं आएगा; परन्तु यदि उन भगवान के स्वरूप की ऐसी दृढ़ता नहीं होगी, तो आप चाहे जितने उपवास ही क्यों न करें, फिर भी आपकी कमी किसी भी प्रकार से दूर नहीं हो पाएगी। और, आप कहेंगे कि, ‘हमें तो आपके कथानानुसार ही भगवान के स्वरूप की दृढ़ता बनी हुई है, फिर भी हमारे प्राण और इन्द्रियाँ उनके स्वरूप में लीन क्यों नहीं होते?’ तो इस विषय में आपको यह समझना चाहिए कि आपकी स्थिति परमेश्वर की इच्छा से ही रही है, लेकिन उसे कुछ करना शेष नहीं है! वह कृतार्थ हो चुका है तथा वह समस्त साधनों को समाप्त कर चुका है। यदि भगवान के स्वरूप की ऐसी दृढ़ता हो, तथा निर्मान, निर्लोभ, निष्काम, निःस्वाद और निःस्नेह आदि वर्तमानों के पालन में से कदाचित् कुछ शिथिलता रह गयी तो उसकी तो कोई चिन्ता नहीं, परन्तु भगवान के स्वरूप के ज्ञान को समझने में यदि किसी प्रकार की कसर रह गई, तो किसी भी प्रकार आपकी कमी दूर नहीं हो पाएगी। इसलिए अपने जीवनकाल में ही जैसे भी बने वैसे इस रहस्य को समझ लेने का उपाय कर लें।

“और, यह वार्ता यथार्थरूप में जिसने समझ ली हो, फिर प्रारब्ध कर्मवश किसी नीच-उच्च देह की प्राप्ति हो गई, तो भी जीव में से वृत्रासुर की तरह इस भगवत्स्वरूप के ज्ञान का लोप नहीं होगा। जैसे भरतजी को मृग का शरीर प्राप्त हुआ, परन्तु उनका पूर्वजन्म का ज्ञान नहीं मिट सका; ऐसा ही इस ज्ञान का अतिशय माहात्म्य है। और, नारद-सनकादिक तथा ब्रह्मादि देवों की सभा में भी निरन्तर यही वार्ता होती रहती है। और, भगवत्स्वरूप सम्बंधी ऐसी वार्ता तो शास्त्रों से भी अपने-आप समझ में नहीं आती। और, सद्ग्रन्थों में ऐसी वार्ता तो होती है, परन्तु जब सत्पुरुष प्रकट होते हैं तभी उनके मुख द्वारा यह बात समझ में आती है। लेकिन अपनी बुद्धि के आधार पर तो सद्ग्रन्थों में से भी यह बात समझ में नहीं आती। और, जिसको इसी प्रकार भगवान का यथार्थ स्वरूप समझ में आ गया है, उसकी दृष्टि भूत, भविष्य तथा वर्तमानसूचक तीनों कालों में भी यदि पहुँचती हो, तो भी उसको उस बात का कुछ भी अहंकार नहीं होता; और ऐसे ज्ञानी कभी किसी को वरदान या शाप देते भी है अथवा नहीं भी देते! वे कहीं पर निर्भय रहते हैं, तो कहीं पर भयभीत भी दिखते हैं! परंतु ऐसे कारणों से वे अपने मन में किसी प्रकार का हर्ष या शोक तो नहीं लाते! भगवान का इस प्रकार का जिसको दृढ़ आश्रय होता है, वह जानबूझकर अशुभ कर्म करता ही नहीं है, परन्तु कदाचित् विषम देशकालादि के संयोग से यदि उससे कोई अशुभ कर्म हो भी गया, तो कल्याण-मार्ग से ऐसे दृढ़ आश्रयवाले भक्त का पतन कभी नहीं होता। अतः भगवान के दृढ़ आश्रय के समान अन्य कोई निर्विघ्न मार्ग है ही नहीं! और, जिसको यह बात समझ में आ चुकी हो, उसका महान आशय होता है। देखिए न, यद्यपि हमें परमहंसों तथा सत्संगिजनों से कोई स्वार्थ नहीं सिद्ध करना है, तो भी हम किसी को बुलाते हैं, किसी को डाँटते हैं और किसी को निकाल भी देते हैं, इसका एकमात्र यही प्रयोजन है कि, ‘किसी भी प्रकार से उसे यह बात समझ में आ जाये, तो उसका कल्याण हो जाए।’ इसलिए, आप सब इस स्वरूप-ज्ञान की वार्ता को दृढ़तापूर्वक अपनी स्मृति में रखियेगा।

“और, यह बात अवश्य समझ लें कि (अक्षररूप उस), ‘तेजपुंज में जो मूर्ति है, वे ही ये प्रत्यक्ष महाराज हैं।’ इस बात को दृढ़ करना। यदि यह बात मानने में संशय हो, तो इतना अवश्य मानना कि, ‘अक्षररूप तेज में जो मूर्ति है, उसे महाराज देखते हैं।’ यदि इतना भी जान लिया, तो भी हमारे प्रति आपका स्नेह बना रहेगा तथा उससे आपका परमकल्याण होगा। और, इस बात को प्रतिदिन ताजा बनाये रखना, लेकिन लापरवाह होकर इसका विस्मरण मत करना। जैसी तुम्हें इस बात की स्मृति आज हो, वैसी की वैसी कल भी रखना और जीवन के अन्त तक इसे दिन-प्रतिदिन बिल्कुल नूतन ही नूतन रखिएगा। और, आप भगवान की जो-जो बातें करें, उस प्रत्येक बात में इस बात का बीज बताते रहना, ऐसी मेरी आज्ञा है। और यह वार्ता इतनी जानदार है कि देह रहने तक भी इसे प्रतिदिन करते रहना तथा देहत्याग के बाद भागवती तन द्वारा भी इसी बात को करना है। और यह जो बात हमने आपको बतायी है, वह समस्त शास्त्रों का सिद्धान्त है, और अनुभव में भी यही बात हमें सुदृढ़ है, तथा हमने प्रत्यक्षरूप से देखकर ही आपको यह बात बतायी है। यदि हमने इसे प्रत्यक्षरूप से नहीं देखा हो, तो हमें समस्त परमहंसों की कसम है।”

इस प्रकार श्रीजीमहाराज ने अपने भक्तजनों को शिक्षा देने के लिए अपने पुरुषोत्तम होने की वार्ता परोक्षरूप से कही। यह बात सुनकर समस्त साधुओं तथा हरिभक्तों ने यही दृढ़ता की कि, “अक्षररूप तेजपुंज में जिस मूर्ति के रहने की बात कही गई है, वही मूर्ति ये प्रत्यक्ष प्रमाण श्रीजीमहाराज ही हैं।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ १३ ॥ १४६ ॥

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This Vachanamrut took place ago.


२३२. अर्थ: “जिस ब्रह्मधाम को प्राप्त करके पुनः जन्म-मरण को भोगना नहीं होता तथा जिस धाम को सूर्य-चंद्र तथा अग्नि भी प्रकाशित नहीं कर सकते हैं, वही मेरा परम धाम है।” (गीता: १५/६)

२३३. भगवान स्वामिनारायण अक्षरातीत सर्वोपरि पुरुषोत्तम हैं, उन्हीं से सभी अवतार प्रकट होते हैं, तथा पुनः उन्हीं में लीन होते हैं। जैसे तारे चन्द्र में लीन होते हैं, चन्द्र सूर्य में लीन होता है, उसी प्रकार लीनता समझना; परंतु जैसे जल में जल या अग्नि में अग्नि मिलती है, वैसे लीनता मत समझना। (गोपालानंद स्वामी की बातें: १/१७२)

SELECTION
प्रकरण गढ़डा प्रथम (७८) सारंगपुर (१८) कारियाणी (१२) लोया (१८) पंचाळा (७) गढ़डा मध्य (६७) वरताल (२०) अमदावाद (३) गढ़डा अंत्य (३९) भूगोल-खगोल वचनामृतम् अधिक वचनामृत (११)

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