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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥
परब्रह्म पुरुषोत्तम
भगवान श्रीस्वामिनारायण के
॥ वचनामृत ॥
गढ़डा प्रथम १५
ध्यान करने में कायर नहीं बनना
संवत् १८७६ में मार्गशीर्ष कृष्णा तृतीया (४ दिसम्बर, १८१९) को श्रीजीमहाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में विराजमान थे। उन्होंने श्वेत वस्त्र धारण किए थे। उनके समक्ष सभा में साधु तथा स्थान-स्थान के हरिभक्त बैठे थे।
श्रीजीमहाराज बोले, “जिसके हृदय में भगवान की भक्ति होती है, उसकी ऐसी मनोवृत्ति रहती है कि, ‘भगवान तथा सन्त मुझसे जो-जो वचन कहेंगे, उसी के अनुसार ही मुझे पालन करना है।’ इस प्रकार की भावना उसके हृदय में बनी रहती है। परन्तु, ‘मैं इतने वचनों का पालन कर सकूँगा और इतने वचनों का पालन मुझ से नहीं हो पाएगा’ ऐसा वचन तो वह भूलकर भी नहीं कहता है, तथा भगवान की मूर्ति को हृदय में उतारने के लिए वह हमेशा शूरवीर बना रहता है, यदि वह किसी कारणवश भगवान की मूर्ति हृदय में न उतार पाया, तो भी वह कायर नहीं होता!
“वह तो नित्य नवीन श्रद्धा रखता है, और मूर्ति को हृदयस्थ करते समय यदि अशुभ संकल्प उत्पन्न हो जाए और यदि वे हटाने पर भी नहीं हटे, तो वह भक्त भगवान की महान महिमा समझकर, स्वयं को कृतकृत्य मानकर उन संकल्पों को निष्फल करता रहता है, साथ-साथ भगवान के स्वरूप को हृदय में धारण करने का प्रयत्न करता रहता है। फिर इस प्रयत्न में भले ही दस, बीस, पचीस अथवा सौ वर्ष क्यों न लग जाएँ, परन्तु वह कायर होकर भगवान के स्वरूप को हृदय में उतारने की साधना को कभी नहीं छोड़ता! क्योंकि श्रीकृष्ण भगवान ने गीता में कहा है कि ‘अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो याति परां गतिम् ।’२५ इसलिए जो भक्त, भगवान को अपने हृदय में धारण करता रहता हो, और ऐसा अपना वर्तन रहता हो, उसे एकान्तिक भक्त कहते हैं।”
॥ इति वचनामृतम् ॥ १५ ॥
This Vachanamrut took place ago.
२५. भावार्थ: अनेक जन्म के पुण्यकर्म द्वारा सिद्ध स्थिति प्राप्त होने पर उसे अंतिम जन्मरूप परागति प्राप्त होती है अर्थात् प्रकट भगवान की प्राप्ति होती है। (गीता: ६/४५)