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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा मध्य १७

भगवत्स्वरूप में तत्त्व मीमांसा; स्थितप्रज्ञ

संवत् १८७८ में आश्विन कृष्णा एकादशी (२१ अक्तूबर, १८२१) को रात के समय स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में श्रीवासुदेव नारायण के मन्दिर के समीप कमरे के बरामदे में सिंहासन पर विराजमान थे। उन्होंने श्वेत वस्त्र धारण किए थे। उनके सामने दो मशालें जल रही थीं। उनके समक्ष परमहंस तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा में संतगण कीर्तन गान कर रहे थे।

इसी बीच श्रीजीमहाराज ने कहा कि, “कीर्तन समाप्त करें। अब प्रश्नोत्तरी प्रारम्भ करते हैं।”

फिर समस्त मुनिजन बोले कि, “बहुत अच्छा, महाराज!”

तत्पश्चात् श्रीजीमहाराज ने प्रश्न किया कि, “कोई भक्त तो भगवान के स्वरूप को माया के चौबीस तत्त्वों सहित समझता है, तथा कोई भक्त भगवान के स्वरूप को माया के तत्त्वों से रहित केवल चैतन्यमय ही मानता है; इन दोनों प्रकार के भक्तों में किसकी समझ ठीक है और किसकी समझ ठीक नहीं है?”

इस प्रश्न का उत्तर देते हुए मुक्तानन्द स्वामी ने कहा कि, “जो भक्त भगवान के स्वरूप में मायिक चौबीस तत्त्वों को समझता है, उसकी समझ ठीक नहीं है। और, जो भक्त भगवान को माया के तत्त्वों से रहित केवल चैतन्यमय समझता है, उसकी समझ ठीक है।”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “सांख्यमत के अनुसार चौबीस तत्त्व हैं, उनमें तेईस तत्त्व तथा चौबीसवाँ क्षेत्रज्ञ जो जीव-ईश्वररूप चैतन्य है। इस प्रकार चौबीस तत्त्व कहे गए हैं, क्योंकि क्षेत्र एवं क्षेत्रज्ञ का अन्योन्याश्रयभाव है और क्षेत्रज्ञ को क्षेत्र के बिना बतलाया ही नहीं जा सकता और क्षेत्र के बिना क्षेत्रज्ञ नहीं कहा जा सकता। इसीलिए जीव-ईश्वर को तत्त्वों के साथ ही बताया गया है। और, भगवान तो क्षेत्र तथा क्षेत्रज्ञ दोनों के ही आश्रयदाता हैं; अतः मायिक तत्त्वों को भगवान से भिन्न कैसे कहा जा सकता है? जिस प्रकार आकाश में चारों तत्त्व के रहते हुए भी वह इन तत्त्वों से निर्लिप्त है, वैसे ही परमेश्वर भी मायिक तत्त्वों से पूर्णतः निर्लिप्त है। ऐसे उस भगवान के स्वरूप को यदि चौबीस तत्त्वों सहित कहेंगे, तो उसमें क्या बाध आता है? और यदि भगवान को तत्त्वरहित कहेंगे तो उसमें क्या निर्बाधता आ जाती है? हमें तो ऐसा प्रतीत होता है।”

यह सुनकर दीनानाथ भट्ट ने पूछा कि, “जिसे भगवान की मूर्ति का ध्यान करना हो, उसे भगवान का स्वरूप तत्त्वसहित समझना चाहिए अथवा तत्त्वरहित?”

तब श्रीजीमहाराज ने कहा कि, “जो भक्त भगवान के स्वरूप को तत्त्व सहित समझता है, वह भी पापी है और जो भगवान के स्वरूप को तत्त्व रहित जानता है, वह भी पापी है। भगवान के भक्त को भगवान के स्वरूप में तत्त्व होने या न होने के प्रश्न पर वाद-विवाद करना बिल्कुल अच्छा नहीं लगता। जो भक्त होता है, वह तो यही जानता है कि, ‘भगवान तो भगवान ही हैं। उनके स्वरूप में मायिक-अमायिक भाव के लिए कोई गुंजाइश ही नहीं है। वे भगवान तो समग्र रूप से दिव्य हैं तथा अनन्त ब्रह्मांडों की आत्मा हैं।’ और जिस भक्त को भगवान के स्वरूप में किसी प्रकार का तर्क-वितर्क नहीं होता, उसे निर्विकल्प स्थितिवाला जानना चाहिए तथा जिसकी ऐसी एक एवं स्थिर मति हो, उसे स्थितप्रज्ञ समझना चाहिए। और, जिसे भगवान के स्वरूप में ऐसी दृढ़ मति रहती है, उसे भगवान समस्त पापों से मुक्त करते हैं।

“भगवद्‌गीता में भगवान ने अर्जुन से कहा है कि:

‘सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥’२३६

“इस संसार में ऐसी भी रीति है कि जिससे अपना बड़ा स्वार्थ सिद्ध होता हो, उसके दोषों पर बुद्धिमान पुरुष ध्यान नहीं देता। जिस प्रकार स्त्री अपने स्वार्थ के कारण पति के दोषों की उपेक्षा कर देती है तथा यदि अतिशय स्वार्थ हो तो अन्य गृहस्थ भी अपने भाइयों, भतीजों और लड़कों आदि सम्बंधीजनों के दोषों पर ध्यान नहीं देते, वैसे ही जिसने भगवान के साथ अपना बड़ा स्वार्थ सिद्ध होना जान लिया हो कि, ‘भगवान अपने भक्त को पाप तथा अज्ञान से मुक्त करके अभयपद प्रदान करते हैं, तो उसे भगवान के स्वरूप में कोई दोष दिखाई ही नहीं पड़ता। जिस प्रकार शुकजी ने रासपंचाध्यायी का वर्णन किया, तब राजा परीक्षित को संशय हुआ कि, ‘भगवान ने परस्त्री का संग क्यों किया?’ परन्तु शुकजी को लेशमात्र भी संशय नहीं हुआ। तथा गोपियों के साथ भगवान ने जो विहार किया, उसके सम्बंध में गोपियों को भी संशय नहीं हुआ कि, ‘भगवान होकर ऐसा आचरण क्यों करते हैं?’ ऐसा संशय किसी भी प्रकार से नहीं हुआ। और, जब भगवान कुब्जा के घर गए, तब वे उद्धवजी को भी अपने साथ ले गए थे। परन्तु उद्धवजी को किसी भी प्रकार का संशय नहीं हुआ। और, जब उद्धवजी को व्रज में भेजा गया, तब गोपियों की वाणी सुनकर भी उन्हें किसी प्रकार का संशय नहीं हुआ, वरन् उन्होंने गोपियों का माहात्म्य और अच्छी तरह समझ लिया। अतः जिसको भगवान का अचल आश्रय प्राप्त हो चुका हो, वह चाहे अतिशय शास्त्रवेत्ता हो अथवा भोला ही क्यों न हो, परन्तु उसकी मति भ्रमित नहीं होती।

“और, भगवान के जो दृढ़ भक्त हैं, उनका माहात्म्य भी भगवान के भक्त ही जान सकते हैं। फिर वह चाहे शास्त्रवेत्ता हो या न हो, परन्तु भगवान में जिसकी दृढ़ मति होती है, वही भगवान के भक्त का माहात्म्य जान सकता है तथा दृढ़मतिवाले भक्तों को पहचान भी लेता है। परन्तु, उसके बिना जगत के विमुख जीव, भले ही पंडित हों या मूर्ख, भगवान में दृढ़मति नहीं रख सकते तथा ऐसे दृढ़मतिवाले भक्तों को भी नहीं पहचान सकते और न तो उनके माहात्म्य को ही जान सकते हैं। अतः जो भगवान का भक्त होता है, वही भगवद्भक्त को पहचान सकता है और वही उसका माहात्म्य भी जान सकता है। जिस प्रकार उद्धवजी ने गोपियों का अतिशय माहात्म्य समझा था, वैसे ही गोपियों ने भी उद्धवजी का माहात्म्य समझ लिया था।

“और पुरुषोत्तम भगवान समस्त क्षेत्रज्ञों के भी क्षेत्रज्ञ हैं, फिर भी वे निर्विकार हैं। माया आदि विकारवान पदार्थों का विकार पुरुषोत्तम भगवान को स्पर्श नहीं करता। यदि स्थूल, सूक्ष्म और कारणजन्य विकार आत्मनिष्ठ पुरुष का भी स्पर्श नहीं करते, तब वे पुरुषोत्तम भगवान का स्पर्श न करें, इसके सम्बंध में क्या कहा जाए? यह तो स्वाभाविक ही है। भगवान निर्विकार तथा निर्लेप ही हैं। जो भक्त इस रीति से भगवान के स्वरूप को समझते हैं, उन्हीं को भगवान का स्थितप्रज्ञ भक्त समझना चाहिए। जैसे आत्म-स्थितिवाला भक्त स्थितप्रज्ञ कहलाता है। उसी प्रकार जिसे भगवान के स्वरूप में किसी भी प्रकार का कुतर्क नहीं होता, और जो भगवान के सामर्थ्य अथवा अमसर्थता का भी गुणानुवाद करता हो, एवं भगवान के उचित या अनुचित दिखनेवाले चरित्रों का भी महिमापूर्वक गान करता हो, लेकिन भगवान के कैसे भी चरित्रों में ‘उचित एवं अनुचित’ का कोई संशय न करता हो, ऐसे भगवद्भक्त को पुरुषोत्तम भगवान के स्वरूप में स्थितप्रज्ञ समझना चाहिए।२३७ तथा जिसको पुरुषोत्तम भगवान के स्वरूप में ऐसी दृढ़ निष्ठा हो चुकी तो उसको इससे आगे और कुछ समझना ही शेष नहीं रह जाता।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ १७ ॥ १५० ॥

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२३६. अर्थ के लिए देखिए वचनामृत गढ़डा मध्य ९ की पादटीप।

२३७. यहाँ उल्लिखित ‘स्थितप्रज्ञता’ और गीताकथित ‘स्थितप्रज्ञता’ में अंतर है। गीता के दूसरे अध्याय में ‘आत्मनिष्ठा’ एवं सुख-दुःख में ‘समत्वभाव’ आदि को स्थितप्रज्ञता कहा गया है, जबकि यहाँ भगवत्स्वरूप के चरित्रों में मन की निश्चलता को स्थितप्रज्ञता कहते हैं।

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प्रकरण गढ़डा प्रथम (७८) सारंगपुर (१८) कारियाणी (१२) लोया (१८) पंचाळा (७) गढ़डा मध्य (६७) वरताल (२०) अमदावाद (३) गढ़डा अंत्य (३९) भूगोल-खगोल वचनामृतम् अधिक वचनामृत (११)

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