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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा मध्य १८

नास्तिक तथा शुष्क वेदान्ती

संवत् १८७८ में मार्गशीर्ष कृष्णा षष्ठी (१४ दिसम्बर, १८२१) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में अपने निवासस्थान में गद्दी-तकिया रखवाकर विराजमान थे। उन्होंने श्वेत वस्त्र धारण किये थे तथा सफ़ेद चादर ओढ़कर उस पर बूटादार रजाई ओढ़ी थी। उनके मस्तक पर श्वेत फेंटा सुशोभित हो रहा था। उनके समक्ष परमहंसों तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी। उस समय प्रागजी दवे कथा कर रहे थे।

इसी बीच श्रीजीमहाराज बोले कि, “हमने तो हर प्रकार से सोचकर देखा कि इस संसार में जितने भी कुसंग कहलाते हैं, उन सभी कुसंगों में सर्वाधिक हीन कुसंग कौन-सा है? तो जिस पुरुष को परमेश्वर की भक्ति नहीं है तथा भगवान सर्व के स्वामी हैं, भक्तवत्सल हैं, पतितपावन हैं, अधमोद्धारक हैं, ऐसा जिसके हृदय में विश्वास नहीं है; ऐसे लोगों का संग ही अत्यन्त निन्दनीय कुसंग है। ऐसे तो संसार में दो मतों को माननेवाले लोग होते हैं। जिनमें से एक तो नास्तिकों का मत तथा दूसरा शुष्क वेदान्तियों का मत है। इन दोनों का ही संग घोर निंदनीय कुसंग है। और, पंचमहापाप से युक्त पापी को भी यदि भगवान का विश्वास हो, तो कभी न कभी उसका कल्याण हो सकता है तथा बालहत्या, गौहत्या एवं स्त्रीहत्या आदि घोर पाप करनेवालों की भी किसी समय उस पाप से मुक्ति हो सकती है, परन्तु जिसको उक्त दोनों मतों में विश्वास हो गया हो, उसका छुटकारा तो कभी भी नहीं होता। क्योंकि उसकी समझ वेदों, शास्त्रों और पुराणों से विपरीत होती है।

“ऐसे लोगों में नास्तिक मतानुयायी ऐसा समझते हैं कि, ‘रामचंद्रजी तथा श्रीकृष्ण भगवान तो राजा थे, और श्रीकृष्ण ने दैत्यों को मार डाला तथा पर स्त्रियों का संग किया, इसलिए वे तीसरे नरक में पड़े हैं।’ इस प्रकार इन नास्तिकों में ऐसी बुद्धि ही नहीं है कि वे अधमोद्धारक, पतितपावन श्रीकृष्ण भगवान को परमेश्वर समझ सकें। इन नास्तिकों ने कर्म द्वारा ही अपना आत्मकल्याण मान लिया है। वे मानते हैं कि कर्म करते-करते जब ‘केवल ज्ञान’ प्रकट होता है, तब कोई भी व्यक्ति भगवान बन जाता है। इस तरह उन्होंने अनन्त भगवान माने हैं, किन्तु उनके मतानुसार कोई अनादि परमेश्वर है ही नहीं कि जिनका भजन करने से जीव भवबन्धन से मुक्त हो जाता है। इस कारण, उनका यह मत वेदों के विरुद्ध है।

“और, शुष्कवेदान्तियों के मतानुसार जो ब्रह्म है, वही जीवरूप हुआ है। जैसे सूर्य का प्रतिबिम्ब होता है, उसी प्रकार जीव भी ब्रह्म का ही रूप है। इसलिए वे ऐसा ‘ज्ञान’ प्राप्त करते हैं कि ‘मैं ब्रह्म हूँ,’ इसलिए मुझे किसी भी प्रकार की साधना करने की आवश्यकता नहीं रह जाती। ऐसे मिथ्याज्ञानी जब स्वयमेव परमेश्वर हो गए, तब वे किसका भजन करें? ऐसे मतानुयायी पाप करने से भी नहीं डरते और अपने मन में समझने लगते हैं कि, ‘हम निर्गुणमार्ग को प्राप्त हो चुके हैं, अतः हमें फिर से जन्म नहीं लेना पड़ेगा।’ परन्तु, वे शुष्कवेदान्ती इस बात की खोज नहीं करते कि माया पर जो निर्गुण ब्रह्म है, उसका भी वे लोग अपनी बुद्धि के अनुसार जन्म-मरण निश्चित कर लिए! क्योंकि वे कहते हैं कि, ‘ब्रह्म स्वयं स्थावर-जंगमरूप हुआ है!’ इस प्रकार से जीव के जन्म-मरण का चक्र इनके ‘ज्ञान’ के परिणाम स्वरूप ब्रह्म के सिर पर मंडारने लगा! इतना होते हुए भी वे तो ऐसा ही मानते हैं कि, ‘हम जन्म-मरण के बन्धन से मुक्त हो जाएँगे।’ परन्तु, वे यह विचार नहीं करते कि हमारे ही मतानुसार ब्रह्म के सिर पर जन्म-मरण का चक्र आ गया!

“तब वे स्वयं को कितना ही ब्रह्मरूप मानें; फिर भी जन्म-मरण तो नहीं मिटेगा, इसलिए उनके अपने ही मतानुसार जो मोक्ष माना था, वह मिथ्या हो जाता है! परन्तु वे आत्मनिरीक्षण करके यह नहीं देख सकते; बल्कि जिह्वा से केवल बकवास करते रहते हैं कि, ‘हम तो ब्रह्मरूप हैं, तो फिर हम किसका भजन करें और किसको नमस्कार करें?’ ऐसा मानकर वे अत्यंत ही अहंकारी हो जाते हैं। कोई भी बात उनकी समझ में आयी नहीं, और ज्ञानी होने का मिथ्या अहंकार लेकर बैठ गए! किन्तु यह विचार नहीं करते कि, ‘उनके मतानुसार उनकी ही मोक्ष धारणा ही मिथ्या हो चुकी है।’ और, जो कोई ऐसे शुष्कवेदान्ती का संग करता है, उसको भी वे अपने समान ही मूर्ख बना देते हैं।

“तथा नारद-सनकादिक एवं शुकजी आदि सच्चे ज्ञानी हैं, जो निरन्तर भगवान का ध्यान, नमोच्चारण और कीर्तन करते रहते हैं; और, श्वेतद्वीप में स्थित निरन्नमुक्त तो ब्रह्मस्वरूप हैं और काल के भी काल हैं, वे भी परमेश्वर का ध्यान, नामरटन, कीर्तन, पूजन और अर्चन-वन्दन करते रहते हैं। वे स्वयं अक्षरस्वरूप हैं, फिर भी अक्षरातीत पुरुषोत्तम भगवान के दास होकर रहते हैं; और बदरिकाश्रमवासी उद्धव एवं तनु ऋषि आदि मुनि भी तप करते हैं तथा निरन्तर भगवान की भक्ति करते रहते हैं। परन्तु शुष्कवेदान्ती केवल देहाभिमानी जीव होने पर भी भगवान का ध्यान, स्मरण या वन्दन नहीं करते। नारद, सनकादिक तथा शुकजी, श्वेतद्वीपवासी निरन्नमुक्तों तथा बदरिकाश्रमवासी ऋषियों में जैसा सामर्थ्य और जैसा ज्ञान है, उनके करोड़वें भाग का सामर्थ्य तथा ज्ञान भी उनमें नहीं है, तो भी परमेश्वर के प्रतिद्वन्द्वी होकर बैठे हैं। इसलिए, वे पक्के अज्ञानी हैं और जीतने भी अज्ञानी हैं, उनके भी सरदार हैं। ऐसे लोग तो करोड़ों कल्पों तक नरककुंड में पड़े रहेंगे और उन्हें यमयातना भोगनी पड़ेगी, तो भी उनका छुटकारा नहीं होगा। ऐसे लोगों का संग ही कुसंग है। जिस प्रकार सत्पुरुष के संग से बढ़कर कोई अधिक पुण्य नहीं है, वैसे ही अज्ञानी शुष्कवेदान्तियों के संग से बढ़कर अधिक कोई पाप नहीं है। इसलिए, आत्मकल्याण के इच्छुक पुरुषों को नास्तिकों तथा शुष्कवेदान्तियों का संग कभी नहीं करना चाहिए।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ १८ ॥ १५१ ॥

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