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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा मध्य १९

शुष्क वेदांत के ग्रंथ के श्रवण से उदासीन होकर किया गया पत्रलेखन

संवत् १८७८ में मार्गशीर्ष कृष्णा चतुर्दशी (२३ दिसम्बर, १८२१) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में परमहंसों के ठहरने के स्थान में सूर्योदय के समय पधारे थे। वहाँ आकर वे गद्दी-तकिया पर उदास होकर बैठ गए। उन्होंने न तो किसी को बुलाया और किसी के सामने देखा ही। उन्होंने मस्तक पर श्वेत फेंटा बाँधा था, जो खुलकर शिथिल पड़ गया था, उसे भी संभाला नहीं। इस प्रकार वे एक घड़ी तक अत्यन्त उदास होकर बैठे रहे। उसी स्थिति में उनके नेत्रों से आँसू गिरने लगे।

इसके पश्चात् श्रीजीमहाराज परमहंसों से बोले कि, “हमने शुष्कज्ञानियों का मत जानने के लिए उनके शास्त्र का श्रवण किया। उसके श्रवणमात्र से हमारे अन्तःकरण में अति उद्वेग हो गया। क्योंकि शुष्कवेदान्त शास्त्र के श्रवण से जीव की बुद्धि से भगवान की उपासना की भावना नष्ट हो जाती है और अन्तःकरण में समभाव आ जाता है; इसी कारण से अन्य देवों की भी उपासना हो जाती है। ऐसे शुष्कवेदान्तियों के वचनों को जो भी सुनते हैं, उनकी बुद्धि बिल्कुल भ्रष्ट हो जाती है। और, हमने तो किसी प्रयोजन से शुष्कवेदान्त की बात सुनी होगी, परन्तु अब तो हमें उसका गहरा शोक हुआ है।” इतना कहकर श्रीजीमहाराज बहुत उदास हो गए।

इस प्रकार वे बहुत देर तक खिन्न रहे और अपने हाथों से नेत्रों के आँसू पोंछकर ऐसा बोले कि, “भगवद्‌गीता पर हुए रामानुज भाष्य की कथा सुनकर हम आज रात्रि में जब सो रहे थे, तब हमने एक स्वप्न देखा कि हम गोलोक में गए, जहाँ भगवान के अनन्त पार्षदों को देखा। उनमें से कितने ही पार्षद भगवान की सेवा में थे वे स्थिर से दिखाई पड़े, तथा कितने ही पार्षद परमेश्वर का कीर्तन कर रहे थे। वे कीर्तन भी मुक्तानन्द स्वामी तथा ब्रह्मानन्द स्वामी रचित कीर्तन ही गा रहे थे। वे गाते हुए झूम रहे थे, मानो भजन की मस्ती में पागल-से हो गए हों! फिर हम भी कीर्तनगान करनेवालों के साथ जाकर मिल गए और कीर्तन करने लगे। गाते हुए हमें लगा कि परमेश्वर की ऐसी प्रेमभक्ति तथा परमेश्वर की ऐसी उपासना का परित्याग करके जो मिथ्याज्ञानी ऐसा मानता है कि, ‘हम ही भगवान हैं,’ वह महादुष्ट है।”

इतना कहकर श्रीजीमहाराज बोले कि, “कोई भी मुमुक्षु किसी भी प्रकार धर्म तथा भगवान की भक्ति से विचलित न हों तथा अपने इष्टदेव श्रीकृष्ण नारायण से उसकी बुद्धि किसी प्रकार विचलित न हो, ऐसे उद्देश्य से, लाइए एक पत्र लिखकर देशभर के सत्संगियों को भेज दें!”

फिर उन्होंने स्वयं एक पत्र तैयार किया, जिसमें लिखा कि, “समस्त परमहंसों तथा सभी सत्संगी स्त्री-पुरुषों को स्वामी श्री सहजानन्दजी महाराज का नारायण-स्मरण। विशेष, हमारी आज्ञा है कि, धर्म के स्थापन के लिए एवं ब्रह्मचर्य, अहिंसा आदि धर्म, आत्मनिष्ठा, वैराग्य और माहात्म्य सहित भक्ति से सम्पन्न अपने एकान्तिक भक्तों को दर्शन देने के लिए, उनकी रक्षा करने के लिए तथा अधर्म का मूलोच्छेद करने के लिए देवों और मनुष्यों आदि में श्रीकृष्ण नारायण, पुरुषोत्तम भगवान के अवतार होते हैं। आप सभी इन अवतारों के प्रति अनन्य भाव से पतिव्रता जैसी निष्ठा रखें। जैसे सीताजी ने निर्दोषभाव से श्रीरामचन्द्रजी के प्रति निष्ठा रखी थी, वैसी ही निष्ठा रखें। और ऐसे भगवान की अतिशय प्रेमपूर्वक मानसी पूजा भी करें तथा देह द्वारा भी नव प्रकार से भक्ति करते रहें। तथा श्रीकृष्ण नारायण के अवतार पृथ्वी पर प्रकट न हों तो, उनकी प्रतिमा की पूजा मन द्वारा तथा देह द्वारा चंदन, पुष्प, तुलसी आदि सामग्री से करनी चाहिए। परंतु बिना भगवान के किसी अन्य देव की उपासना नहीं करनी चाहिए। यदि अन्य देवों की उपासना की गई तो उससे बड़ा दोष लगता है और पतिव्रता भाव भी नष्ट हो जाता है, और ऐसी भक्ति वेश्या-जैसी हो जाती है। इसलिए भगवान की भक्ति तो सीता तथा रुक्मिणी के समान करें तथा उस भगवान का ही ध्यान करें। उनके सिवा, अन्य किसी भी देवता का ध्यान मत करें। यदि कोई साधु सिद्धगति को प्राप्त हुआ हो तथा वह समाधिनिष्ठ भी हो, तो उसका भी ध्यान न करें। तथा सभी अपने-अपने वर्णाश्रमधर्म का पालन दृढ़तापूर्वक करते रहें।

“और, हमारी इस आज्ञा का जो दृढ़तापूर्वक पालन करेगा, उसको श्रीकृष्ण नारायण में नारद जैसी दृढ़ भक्ति सिद्ध हो जाएगी। जो भी स्त्री हमारी इस आज्ञा को मानेगी, उसको श्रीकृष्ण नारायण में लक्ष्मीजी तथा राधिकाजी आदि गोपियों के सदृश भक्ति सुदृढ़ हो जाएगी। जो हमारे वचनों का उल्लंघन करेंगे, उनकी भक्ति वेश्या के समान (व्यभिचारिणी) हो जाएगी। संवत् १८७८, मार्गशीर्ष कृष्णा चतुर्दशी को यह पत्र लिखा है।”

श्रीजीमहाराज ने ऐसा पत्र लिखकर देशभर के सत्संगियों के प्रति भिजवाया।

॥ इति वचनामृतम् ॥ १९ ॥ १५२ ॥

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