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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा मध्य २०

समाधिनिष्ठ की ज्ञानशक्ति

संवत् १८७८ में पौष कृष्णा चतुर्दशी (२२ जनवरी, १८२२) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में श्रीवासुदेव नारायण के मन्दिर के सामने विराजमान थे। उन्होंने श्वेत वस्त्र धारण किये थे, सफ़ेद चादर ओढ़ी थी, उस पर छींट की रजाई ओढ़कर मस्तक पर श्वेत पाग बाँधी थी। उनके समक्ष मुनि तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी। उस समय परमहंस मृदंग-ताल के साथ कीर्तन गा रहे थे।

कुछ क्षणों बाद श्रीजीमहाराज ने परमहंसों से कहा कि, “आज हमने अपने निवास स्थान पर अपने पास रहनेवाले सोमला खाचर आदि हरिभक्तों से एक प्रश्न पूछा है, उसका उत्तर सब परमहंस मिलकर दें।”

परमहंसों ने कहा कि, “हे महाराज! वह प्रश्न हमें सुनाइए।”

इस पर श्रीजीमहाराज बोले कि, “समाधिनिष्ठ पुरुष की स्थिति माया से परे हो जाती है तथा उसे भगवान के स्वरूप का भी दृढ़ सम्बंध रहता है। अतः इस समाधिनिष्ठ की ज्ञानशक्ति तथा देहेन्द्रियों की शक्ति में वृद्धि होनी चाहिए, क्योंकि माया के द्वारा जिन चौबीस तत्त्वों की उत्पत्ति हुई है, वे जड-चैतन्यरूप हैं, उन्हें अकेले जड भी नहीं कह सकते और केवल चैतन्य भी नहीं कह सकते। और, उन तत्त्वों में शक्ति भी एकसमान नहीं होती। जैसे इन्द्रियों की अपेक्षा अन्तःकरण में विशेष ज्ञान रहता है और अन्तःकरण की अपेक्षा इन्द्रियों तथा अन्तःकरण के द्रष्टा जीव में विशेष ज्ञातृत्व रहता है। तथा जीव को जब समाधि लग जाती है, तब वह इन्द्रियों तथा अन्तःकरण के द्रष्टाभाव का परित्याग करके माया से परे ब्रह्म के सदृश चैतन्य हो जाता है और उसे भगवान के स्वरूप का सम्बंध भी रहता है। और, कितने ही लोग समाधिवाले के सम्बंध में यह धारणा बना लेते हैं कि, ‘जिसको समाधि लग जाती है, उसको पहले-जैसी समझ नहीं रहती।’ तो अब हमारा प्रश्न यह है कि ऐसे समाधिवालों की ज्ञान तथा देहेन्द्रियों की शक्ति में वृद्धि होती है या नहीं?”

तब परमहंसों में से जिसकी जैसी बुद्धि थी, उसने वैसा उत्तर दिया, परन्तु कोई भी परमहंस श्रीजीमहाराज के इस प्रश्न का यथार्थ उत्तर न दे सका।

उस समय श्रीजीमहाराज बोले, “चलें, हम इस प्रश्न का उत्तर देते हैं। इस प्रश्न का उत्तर यह है, साक्षी स्वयं ब्रह्म हैं, वह माया से उत्पन्न चौबीस तत्त्वात्मक ब्रह्मांड में प्रवेश करता है और उसको चैतन्यमय बना देता है। ब्रह्मांड को समस्त क्रियाएँ करने का सामर्थ्य प्रदान करता है। उस ब्रह्म का स्वभाव ही है कि काष्ठ हो या पाषाण-सा जड तत्त्व - परन्तु उनमें वह प्रवेश करता है, ऐसे समय जड चीज़ भी सजीव-सी हो जाती है। ऐसे ब्रह्म के साथ जीव समाधि द्वारा तुल्यभाव को प्राप्त कर लेता है, तभी वह जीव ब्रह्मरूप कहलाता है और उसके ज्ञान की वृद्धि होती है। तप, निवृत्ति धर्म तथा वैराग्ययुक्त योगाभ्यास जब उस मुमुक्षु को होता है, तब उसे शुकजी के समान सिद्धदशा प्राप्त हो जाती है। परन्तु जो साधक तप, निवृत्ति-धर्म और वैराग्य-भाव में सामान्य है तथा धर्म, अर्थ एवं कामरूपी प्रवृत्तिमार्ग में आबद्ध है, उसे तो समाधि लगने पर भी एकमात्र ज्ञान की ही वृद्धि होती है, लेकिन इन्द्रियों की शक्ति के विकास को प्राप्त कर वह सिद्धदशा को प्राप्त नहीं कर सकता।

“जिस प्रकार राजा जनक ज्ञानी थे, वह भी वैसा ही ज्ञानी होता है; परन्तु प्रवृत्तिमार्गवाला नारद-सनकादिक तथा शुकजी के समान सिद्धदशा प्राप्त नहीं कर सकता। और, जो सिद्ध होता है, वह भगवान के श्वेतद्वीप आदि धामों में इसी शरीर द्वारा पहुँच जाता है तथा लोक-अलोक जैसे सभी स्थानों में उसकी गति होने लगती है। जबकि प्रवृत्ति मार्गवाले को जनक के समान केवल ज्ञान की ही वृद्धि होती है, परन्तु ज्ञान कम नहीं होता। जैसे श्रीकृष्ण भगवान ने गीता में जो कहा है, उसी उपदेश के अनुसार होता है। वहाँ श्लोक है:

‘या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः ॥’२३८

“अर्थात् ‘जिन प्रवृत्तियों में जीव प्राणीमात्र सोये रहते हैं, उन प्रवृत्तियों में संयमी पुरुष जाग्रत रहते हैं और जिन प्रवृत्तियों में जीव-प्राणी जागते रहते हैं, उन प्रवृत्तियों में संयमी पुरुष सोये रहते हैं।’ इसलिए, जिसकी दृष्टि अन्तरात्मा के सन्मुख रहती हो, उसे देह, इन्द्रियों तथा अन्तःकरण के प्रति शून्यभाव रहा करता है। उसे देखकर अज्ञानी पुरुष समझ बैठता है कि, ‘समाधिवाले का ज्ञान कम हो जाता है।’ बाद में रजोगुण, तमोगुण तथा मलिन सत्त्वगुण के भाव से यदि इस प्रश्न का उत्तर देने लगे, उसे तो यही दिखाई देगा कि, ‘समाधिवालों को ज्ञान कम हो जाता है।’ परन्तु, वह यह नहीं जानता कि, ‘मैं देहाभिमानी हूँ, इसीलिए मूर्खतावश ऐसी बात कह रहा हूँ।’ वास्तव में समाधिवाला देह, इन्द्रियों तथा अन्तःकरण से परे रहकर आचरण करता है, फिर भी उसके ज्ञान की वृद्धि होती है तथा इन्द्रियों एवं अन्तःकरण के भावों के अनुसार आचरण करता है, तब भी समाधि अवस्था में जो ज्ञान उसे प्राप्त हुआ है, वह नष्ट नहीं होता। और, जब वह तप, निवृत्तिधर्म एवं वैराग्य को ग्रहण करके जब भक्त सांसारिक प्रवृत्तिमार्ग का त्याग कर देता है, तो जैसे उसके ज्ञान की वृद्धि हुई थी, उसी प्रकार उसकी इन्द्रियों तथा अन्तःकरण की शक्तियों में भी वृद्धि हो जाती है और वह नारद-सनकादिक एवं शुकजी के समान सिद्ध गति को भी प्राप्त होता है।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ २० ॥ १५३ ॥

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२३८. अर्थ के लिए देखिए वचनामृत गढडा प्रथम प्रकरण ५० की पादटीप।

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