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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥
परब्रह्म पुरुषोत्तम
भगवान श्रीस्वामिनारायण के
॥ वचनामृत ॥
गढ़डा मध्य २१
मोक्ष का रहस्य; प्रत्यक्ष भगवान और सन्त ही कल्याणकर्ता
संवत् १८७८ में फाल्गुन शुक्ला पूर्णिमा (७ मार्च, १८२२) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में श्रीवासुदेव नारायण के मन्दिर के आगे विराजमान थे। उन्होंने श्वेत वस्त्र धारण किये थे। सफ़ेद चादर ओढ़ी थी और श्वेत पाग मस्तक पर बाँधी थी। श्रीजीमहाराज के समक्ष प्रेमानन्द स्वामी आदि समस्त परमहंस विष्णुपद२३९ बोल रहे थे।
उस समय श्रीजीमहाराज बोले कि, “अब कीर्तनगान समाप्त करें! हम एक वार्ता करते हैं, उसे सब सावधान होकर सुनें: व्यासजी ने लोगों के आत्मकल्याण के लिए जितने भी ग्रन्थों की रचना की है, उन सभी ग्रन्थों को हमने ध्यानपूर्वक सुना है। उन सभी शास्त्रों में एकमात्र यही सिद्धान्त प्रतिपादित किया गया है तथा जीव के कल्याण के लिए भी इतनी ही बात है कि इस समस्त जगत के कर्ता हर्ता एकमात्र भगवान हैं। और, इन समस्त शास्त्रों में या तो भगवान के चरित्र हैं या भगवान के सन्त के चरित्र हैं। इनमें वर्णाश्रम धर्म की जो वार्ता है, उसका फल धर्म, अर्थ एवं काम हैं किन्तु इन तीनों से कोई कल्याण नहीं होता। हाँ, केवल वर्णाश्रम धर्म के द्वारा संसार में कीर्ति अवश्य मिलती है तथा दैहिक रूप से वह सुखी रहता है। परन्तु कल्याण के लिए तो भगवान को सर्व-कर्ताहर्ता समझना ही पर्याप्त है।
“और, जीव जैसे परोक्ष रूप भगवान के रामकृष्णादिक अवतारों की महिमा जानता है, तथा परोक्षरूप नारद-सनकादि, शिवजी, जडभरत, हनुमान और उद्धव आदि साधुओं का माहात्म्य समझता है, वैसा ही माहात्म्य यदि प्रत्यक्ष भगवान और उन भगवान के भक्त साधु का जान लिया तो उसे कल्याण के मार्ग में कुछ भी समझना शेष नहीं रह जाता। भले ही यह वार्ता एक बार कहने से समझें अथवा लाख बार कहने से समझें, आज समझें या एक लाख वर्षों के बाद समझें, परन्तु इस बात को समझना ही पड़ेगा। और, नारद-सनकादि, शुकजी, ब्रह्मा तथा शिव आदि से पूछिए, तो वे भी बुद्धिमान हैं, अतः अनेक युक्तियों के द्वारा प्रत्यक्ष भगवान तथा प्रत्यक्ष सन्त को ही वे कल्याण के दाता बताएँगे तथा परोक्ष भगवान और परोक्ष सन्त का जैसा माहात्म्य होता है, वैसा ही माहात्म्य वे प्रत्यक्ष भगवान और सन्त का बताएँगे। और, जिसको इस सिद्धांत का निश्चय हो चुका तो उसे सभी रहस्य हस्तगत हो चुके हैं। कल्याण के मार्ग से उसका कभी भी पतन नहीं होता। जैसे ब्रह्मा, शिव, बृहस्पति तथा पराशरादि कामादि विकारों द्वारा भले ही धर्मच्युत हुए, परन्तु उन्हें यदि प्रत्यक्ष भगवान एवं प्रत्यक्ष सन्त का परोक्ष अवतारादिक के समान ही माहात्म्ययुक्त निश्चय था, तो उनका कल्याणमार्ग से पतन नहीं हुआ। अतः यह वार्ता समस्त शास्त्रों की रहस्यद्योतक है।”
और उसी दिन सायंकाल, स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन से घोड़ी पर सवार होकर श्रीलक्ष्मीवाड़ी में पधारे। वहाँ आम्रवृक्ष के नीचे चबूतरे पर बिछाए गये पलंग पर विराजमान हुए। उन्होंने श्वेत वस्त्र धारण किये थे, सफ़ेद चादर ओढ़ी थी, सिर पर श्वेत पाग बाँधी थी। उस पाग में पीले पुष्पों के तुर्रे लगे हुए थे तथा कानों पर मोगरा के पुष्पगुच्छ सुशोभित हो रहे थे। उनके समक्ष परमहंसों तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।
तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “सुनिए, एक प्रश्न पूछते हैं कि जीव को स्वप्नावस्था में जो-जो स्वप्नसृष्टि दिखायी पड़ती है तथा जीव उस स्वप्नसृष्टि के जो भोग भोगता है, उस समय क्या जीव स्वयं ही उस सृष्टि स्वरूप होता है या वह आत्म-संकल्प द्वारा स्वप्न में उस सृष्टि का सृजन करता है? तथा जीव की तरह ब्रह्मादि ईश्वरों की भी स्वप्न-सृष्टि है, तो क्या वे स्वयं उस सृष्टि-स्वरूप होते हैं कि वे स्वयं अपने संकल्प द्वारा सृष्टि का सृजन करते हैं या जीव-ईश्वर से परे रहनेवाले परमेश्वर ही उस स्वप्न-सृष्टि का सृजन करते हैं? इन प्रश्नों का उत्तर दीजिए।”
तब सभी सन्तों ने अपनी बुद्धि के अनुसार उत्तर दिया, परन्तु कोई यथार्थ उत्तर न दे सका।
अतः श्रीजीमहाराज स्वयं कहने लगे कि, “जीव तथा ईश्वर में से कोई भी स्वतः स्वप्न-सृष्टि का सृजन नहीं करता। स्वयं भी स्वप्न-सृष्टिरूप नहीं होते। वास्तविक बात तो यह है कि जीव-ईश्वर से परे जो परमेश्वर हैं, वे ही सबके कर्म-फलप्रदाता हैं। अतः वे जीव एवं ईश्वर के कर्मानुसार उस स्वप्न-सृष्टि का सृजन करते हैं। उस स्वप्न-सृष्टि में जो अस्थिरता है तथा भ्रान्तभाव है, वह देश (स्थान) के योग से बना रहता है, क्योंकि कंठ प्रदेश ऐसा स्थल है, जहाँ अनन्त प्रकार की ऐसी सृष्टि दिखाई पड़ती है। जिस प्रकार दर्पण लगे हुए मन्दिर में एक दिशा में रखे हुए दीपक से अनेक दीपक दिखाई पड़ते हैं, वैसे ही कंठ प्रदेश के योग से एक ही संकल्प अनन्त प्रकार से दिखाई पड़ता है।
“और, जो मनुष्य ज्ञानी होता है, वह जहाँ जिस देश की जो प्रधानता हो, वहाँ उस देश की वही विशेषता समझता है। और, काल की प्रधानता हो, वहाँ काल की ही समझता है तथा कर्म की प्रधानता हो, वहाँ कर्म की ही समझता है। उसी प्रकार परमेश्वर की प्रधानता हो, वहाँ परमेश्वर की ही प्रधानता समझता है; परन्तु जो मूर्ख है, वह जिस एक बात को समझा हो, उसी बात पर अड़ा रहेगा। यदि वह काल की प्रधानता समझा हो, तो वह उसी को मुख्य समझ लेगा! यदि कर्म को प्रधानभाव से समझा हो, तो वह कर्म को ही सब कुछ मान बैठेगा! यदि माया को अधिक मान लिया तो उसी मान्यता पर डटे रहेगा! परन्तु मूर्ख को पृथक्-पृथक् रूप से पृथक्-पृथक् तत्त्व की प्रधानता समझ में ही नहीं आती। और, जो ज्ञानी होता है, वह जिस स्थान पर जिसकी प्रधानता रहती है, वहाँ उसी की प्रधानता समझता है। इस विषय में यह बात समझनी चाहिए कि परमेश्वर देश, काल, कर्म तथा माया के प्रेरक हैं और अपनी इच्छा से ही देश-कालादि की प्रधानता रहने देते हैं, अन्यथा वे इन सबके आधार हैं। जैसे शिशुमारचक्र ध्रुवमंडल पर आधारित है और जैसे समस्त प्रजा राजा पर आधारित है, भले ही वहाँ दीवान और मंत्री क्यों न हो, परन्तु सत्ता तो राजा की इच्छा से ही चलती है। राजा की इच्छा बिना किसी की सत्ता लेशमात्र भी नहीं चल सकती। वैसे ही परमेश्वर देश, काल, कर्म और माया की सत्ता को जितना चलने देते हैं, उतनी हद तक ही उनकी गतिविधि रहती है, किन्तु परमेश्वर की इच्छा के प्रतिकूल किसी का लेशमात्र भी नहीं चल पाता। इसलिए सर्वकर्ता तो एक परमेश्वर ही हैं।”
इतनी वार्ता के बाद श्रीजीमहाराज पुनः राजभवन में पधारे।
॥ इति वचनामृतम् ॥ २१ ॥ १५४ ॥
This Vachanamrut took place ago.
२३९. देखिए परिशिष्ट: ६