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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा मध्य २२

शूरवीरता और अंतर्दृष्टि

संवत् १८७८ में फाल्गुन कृष्णा दशमी (१८ मार्च, १८२२) को श्रीजीमहाराज अर्धरात्रि के समय जागे और गढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में श्रीवासुदेव नारायण के मन्दिर के आगे दक्षिण की ओर मुखारविन्द करके पलंग पर विराजमान हुए। उन्होंने श्वेत वस्त्र धारण किए थे। उस समय उन्होंने समस्त साधुओं तथा हरिभक्तों को बुलाया। वे सब उनके समक्ष सभा के रूप में बैठ गए।

उस समय श्रीजीमहाराज साधुओं से बोले कि, “एक वार्ता कहते हैं, उसे सुनिए। जब दो सेनाएँ युद्ध के लिए तैयार खड़ी हुई हों तथा दोनों के निशान आमने-सामने लगे हों, तब दोनों पक्षों में से प्रत्येक को यही लक्ष्य रहता है कि, ‘हमें अपना निशान दूसरे पक्ष के निशान के स्थान में लगा देना है और उसका निशान मिटा देना है।’ परन्तु कोई पक्ष ऐसा विचार नहीं करता कि, ‘जब उसका निशान लेने के लिए जाएँगे, तब तक कितने ही सिर धड़ से अलग हो जाएँगे और खून की नदी बहने लगेगी।’ इस प्रकार का भय नहीं रहता, क्योंकि वे शूरवीर हैं, अतः उन्हें मरने का डर होता ही नहीं। और, जो कायर होते हैं वे भागने के हजारों उपाय करते रहते हैं; तथा यह भी सोचते हैं कि, ‘यदि अपनी सेना जीत गई तो सभी के धन और हथियारों को लूट लेंगे।’ जबकि दोनों पक्षों के राजाओं के शूरवीरों को न तो मरने का ही डर रहता है और न माल लूटने का ही लोभ होता है। उनका तो एक ही लक्ष्य रहता है कि, ‘किसी भी कीमत पर दूसरी सेना का निशान हथिया लेना है और हमें ही विजय को पाना है।’

“इस दृष्टान्त का सिद्धान्त यह है कि निशान के स्थान पर भगवान का धाम है और राजा के शूरवीरों के स्थान पर भगवान के दृढ़ भक्त हैं। उन्हें तो इस संसार में मान मिले या अपमान मिले, अपनी देह को सुख मिले या दुःख मिले, अपना शरीर रोगग्रस्त रहे या निरोगी रहे, अपनी देह जिन्दा रहे या किसी कारण उसकी मोत हो जाए किसी भी स्थिति में उन भक्तों के हृदय में संकल्प नहीं होता कि, ‘हमें इतना दुःख झेलना होगा या इतना सुख प्राप्त होगा!’ इन दोनों में से किसी भी तरह का विचार या संकल्प उनके मन में नहीं होता। ऐसे भक्तजनों के हृदय में यही एक दृढ़ निश्चय होता है कि, ‘इस देह के द्वारा भगवान के धाम में ही निवास करना है, परन्तु बीच में कहीं भी आसक्त नहीं होना है।’ जबकि कायर और देहाभिमानी जो भगवद्भक्त हैं, उन्हें भगवान के भजन में हज़ारों तरह के संकल्प-विकल्प होते रहते हैं कि, ‘यदि कठोर व्रत-नियमों का पालन करना होगा, तो हम सत्संग में नहीं रह पाएँगे, तथा नियम-पालन में यदि कठोर नियम नहीं होंगे तो टिक जाएँगे!’ ऐसे लोग यह भी सोचने लगते हैं कि, ‘अगर ऐसा उपाय करेंगे, तो संसार में भी सुखी होंगे और यदि सत्संग में टिक गए, तो धीरे-धीरे सत्संग में भी निभते चलेंगे।’ ऐसे भक्तों को कायर ही समझना चाहिए। जो भगवान के दृढ़ और शूरवीर भक्त हैं उन्हें तो पिंड-ब्रह्मांड सम्बंधी किसी प्रकार के सुख का कोई संकल्प होता ही नहीं!”

तत्पश्चात् श्रीजीमहाराज ने (दृष्टांत देने के लिए) अपने वृत्तान्त की वार्ता कहनी प्रारम्भ की कि, “जब हम अहमदाबाद में श्रीनरनारायणदेव की प्राणप्रतिष्ठा करने गए थे, तब वहाँ हज़ारों मनुष्यों का मेला लगा था। फिर जब श्रीनरनारायणदेव की प्रतिष्ठा हो चुकी और अहमदाबाद के ब्राह्मण भोजन कर चुके, तब हम तैयारी करके वहाँ से निकल पड़े और रात जेतलपुर में जाकर रुके। वहाँ हम ऐसा विचार करने लगे कि, ‘हमने जितने मनुष्य देखे हैं, तथा जितनी प्रवृत्तियाँ देखीं हैं, उनके संस्मरणों को मिटा देना है।’ फिर उन्हें भुलाते हुए हमें हृदय में अत्यन्त कष्ट हुआ और हमारा शरीर भी अस्वस्थ हो गया। हम वहाँ से रवाना होकर रात में धोलका जाकर ठहरे। उसी विचार में धोलका से चल पड़े, और गाँव कोठ के निकट गणेश धोलका के पास खिरनी के जंगल में जाकर रात में रहे। वहाँ हम ऐसा विचार करने लगे कि देह की स्मृति ही नहीं रही। बाद में विचार करते-करते हमने समस्त प्रवृत्तियों को विस्मृत कर दिया। जैसे कि हमने कांकरिया तालाब के तट पर निवास नहीं किया था, और वहाँ मेला भी नहीं लगा था, उस समय हमें किसी भी प्रकार का संकल्प नहीं था, वैसे ही हम समस्त संकल्पों के जंजाल से मुक्त हो गए! फिर लौकिक संकल्प-विकल्प मिट गए और अन्तर्दृष्टि रहने लगी।

“इसके पश्चात् हमें अलौकिक आश्चर्य तथा देवताओं के उपयुक्त भोग आदि दिखाई देने लगे। अनेक प्रकार के विमान, अनेक प्रकार की अप्सराएँ, अनेक तरह के वस्त्र एवं अलंकार हमें उसी तरह दिखाई पड़े जिस तरह मृत्युलोक में हैं! परन्तु हमारे मन में एक भगवान के बिना कहीं भी रुचि नहीं हुई। जिस प्रकार से इहलोक के पंचविषय हमें तुच्छ लगे और उनमें हमारा मन आसक्त नहीं हुआ, ठीक उसी प्रकार देवलोक तथा ब्रह्मलोक के भोग देखकर भी हमारा मन आसक्त नहीं हुआ! यह देखकर सभी देवता हमारी प्रशंसा करने लगे कि, ‘आप भगवान के सच्चे एकान्तिक भक्त हैं, क्योंकि आपका मन भगवान के सिवा कहीं भी आकृष्ट नहीं होता।’ उनके ऐसे वचनों को सुनकर हमारे हृदय में बड़ा साहस पैदा हो गया। बाद में हमने अपने मन को संबोधित करके कहा कि, ‘तेरा जैसा रूप है, वह मैं जानता हूँ। यदि तूने भगवान के सिवा किसी अन्य पदार्थ का संकल्प किया तो तेरी धज्जियाँ उड़ा दूँगा।’ वैसे ही बुद्धि से भी कहा कि, ‘अगर तूने भगवान के सिवा कोई अन्य निश्चय किया, तो तेरी शामत आ जाएगी।’ उसी प्रकार चित्त से भी कहा कि, ‘यदि तूने भगवान के सिवा किसी अन्य का चिन्तन किया, तो तुझे भी चूर-चूर कर डालूँगा।’ उसी प्रकार अहंकार से भी कहा कि, ‘अगर तूने भगवान के दासत्व के सिवा किसी प्रकार से अभिमान किया, तो तेरा नाश कर डालूँगा।’

“फिर हमें जैसे इस लोक के पदार्थों की अत्यन्त विस्मृति हो गई थी, उसी भाँति देवलोक एवं ब्रह्मलोक के पदार्थों का भी अत्यन्त विस्मरण हो गया। और, जब वे सब संकल्प मिट गए, तब संकल्पों की बीमारी भी मिट गई। भगवान के भक्तों को भी इसी प्रकार आचरण करना चाहिए!”

इस प्रकार श्रीजीमहाराज ने अपना वृत्तान्त भक्तजनों के कल्याण के लिए कहा, लेकिन स्वयं तो साक्षात् श्रीकृष्ण पुरुषोत्तम नारायण हैं।

तत्पश्चात् श्रीजीमहाराज बोले कि, “वासुदेव-माहात्म्य में एकान्तिक भक्त के धर्म बताए गये हैं कि, ‘एकान्तिक भक्त देह को अपना स्वरूप नहीं मानता है। वह स्वयं को चैतन्यरूप समझता है। स्वधर्म, ज्ञान एवं वैराग्य सहित भगवान की भक्ति करता है और एकमात्र भगवान के सिवा अन्य किसी भी पदार्थ की वासना नहीं रखता।’ और, जब वह भगवान का भजन करके इस प्रकार का (उत्तम) साधु हुआ, तब ऐसे साधु से बड़ी कोई अन्य पदवी नहीं है! जैसे कोई राजा तथा उसकी रानी हो, तब जितनी परिधि में राजा का राज्य है, उतनी ही परिधि में रानी का राज्य भी कहलाता है और राजा का जैसा हुक्म चलता है, वैसा ही रानी का भी हुक्म चलता है। ठीक उसी प्रकार भगवान का जैसा प्रताप है, वैसा ही उस साधु का भी प्रताप है। इसीलिए, संसार के तुच्छ सुखों की इच्छा साधु कभी न करें! क्योंकि वह साधु जब भगवान के धाम को प्राप्त करता है, तब अनन्त कोटि ब्रह्मांडों के अधिपति ब्रह्मादिक ईश्वर भगवान के लिए जिस प्रकार अनेक प्रकार की भेंट-सामग्रियाँ लाते हैं, उसी तरह वैसी ही वस्तुएँ साधु के लिए भी लाया करते हैं। और, भगवान के प्रताप से वह साधु अलौकिक ऐश्वर्य एवं सामर्थ्य को प्राप्त कर लेता है। ऐसा महान विचार हृदय में रखकर एकमात्र भगवान के सिवा मन में किसी भी अन्य वस्तु की इच्छा न करें। जब हाथ में चिन्तामणि आ चुकी हो तब उसको संभालपूर्वक रखना। क्योंकि जब हाथ में चिन्तामणि रही तो जिस पदार्थ की इच्छा होगी, वह पदार्थ तुरन्त मिलेगा, वैसे ही भगवान के भक्त को भी भगवान की मूर्ति रूपी चिन्तामणि को संभालकर रखना, परन्तु उसे तो छोड़ना नहीं! तब उस मुमुक्षु को हर बात सिद्ध हो जाएगी।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ २२ ॥ १५५ ॥

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