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Play Nirupan Audio॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥
परब्रह्म पुरुषोत्तम
भगवान श्रीस्वामिनारायण के
॥ वचनामृत ॥
गढ़डा मध्य २३
विषयासक्ति की लू तथा शीत
संवत् १८७८ में जयेष्ठ शुक्ला एकादशी (३१ मई, १८२२) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में श्रीवासुदेव नारायण के मन्दिर के आगे विराजमान थे। उन्होंने मस्तक पर श्वेत पाग बाँधी थी, सफ़ेद धोती धारण की थी और श्वेत चादर ओढ़ी थी। उनके समक्ष मुनि तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।
उसी समय श्रीजीमहाराज ने कहा कि, “आज हमने मन के स्वरूप पर विचार करके देखा, तो वह मन जीव से भिन्न नहीं दीख पड़ा। मन तो जीव की ही कोई एक किरण है, परन्तु वह जीव से भिन्न नहीं है। और, जिस प्रकार ग्रीष्मकाल में लू रहती है और शीतकाल में हिम रहता है, उसी तरह मन का स्वरूप दिखायी पड़ा। जैसे मनुष्य के शरीर पर जब लू या हिम का असर होता है, तब वह मनुष्य मर जाता है, वैसे ही वह मन इन्द्रियों द्वारा विषयों के निकट जाता है, तब वे विषय यदि दुःखदायी हों, तो मन तप्त होकर ग्रीष्मकाल की लू के समान हो जाता है तथा वही विषय यदि सुखदायक हों, तो मन शीतकाल के हिमसदृश हो जाता है। जब मन दुःखद विषय को भोगकर और लू की भाँति तप्त होकर जीव के हृदय में बैठता है, तब वह जीव को अत्यन्त दुःखी करके कल्याण के मार्ग से गिरा देता है। तब यह समझना चाहिए कि वह लू लगने से ही मरा है, परंतु जब वह मन सुखदायक विषयजन्य सुख को भोगता है, तब वह हिमसदृश ठंडा होकर जीव के हृदय में बैठ जाता है और जीव को विषयसुख से सुखी बनाकर कल्याणमार्ग से गिरा देता है। तब, यह समझ लेना कि जैसे कोई हिमानी झंझावायु के प्रहार से मरता है, उसी प्रकार विषयीजन को भी परिणाम मिल गया, और उसकी मृत्यु हो गयी।
“अतः जिनका मन बुरे विषयों को देखकर तप्त नहीं होता और अच्छे विषयों को देखकर हिम-जैसा नहीं होता, इस प्रकार जिनका मन अविकारी रहता हो, उन्हीं को परम भागवत सन्त समझना चाहिए। ऐसे निर्विकार मन का होना कोई छोटी बात नहीं है। और, मन का स्वभाव तो कैसा है? तो जैसे कोई बालक सर्प, अग्नि और खुली तलवार को पकड़ना चाहता हो, तब यदि उसे उन्हें पकड़ने न दिया जाए, तो भी वह दुःखी होगा और अगर उसे पकड़ने दिया जाए तो भी रोएगा! वैसे ही यदि मन को विषयों को भोगने का मौका न दिया जाए, तो भी वह दुःखी होगा और यदि उसे उन्हें भोगने दिया जाए, तो भी वह भगवान से विमुख होकर अतिशय दुःखी हो जाएगा। अतः जिसका मन भगवान में आसक्त हुआ हो, किन्तु विषयों के सम्बंध से वह ठंडा और गरम नहीं होता, उसी को साधु जानना चाहिए।”
॥ इति वचनामृतम् ॥ २३ ॥ १५६ ॥
This Vachanamrut took place ago.