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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा मध्य २४

सांख्यनिष्ठा एवं योगनिष्ठा

संवत् १८७९ में श्रावण शुक्ला अष्टमी (२६ जुलाई, १८२२) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन से घोड़ी पर चढ़कर श्रीलक्ष्मीवाड़ी में पधारे थे। वहाँ चबूतरे पर वे उत्तर की ओर मुखारविन्द करके विराजमान थे। उन्होंने श्वेत वस्त्र धारण किए थे, कंठ में मोगरा के पुष्पों का हार पहना था और पाग में मोगरा के पुष्पों का तुर्रा धारण किया था। उनके समक्ष परमहंस तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

उस समय मुक्तानन्द स्वामी ने श्रीजीमहाराज से पूछा कि, “हे महाराज! भगवान की अविचल निष्ठावाले भक्तों को कोई विक्षेप बाधक बनता है या नहीं?”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “एक तो योगनिष्ठा है तथा दूसरी सांख्यनिष्ठा है। उनमें योगनिष्ठावाला भगवान का भक्त भगवान के स्वरूप में अपनी अखंडवृत्ति रखता है। तथा सांख्यनिष्ठावाला भगवान का भक्त मनुष्यों के सुख और सिद्धों, चारणों, विद्याधरों, गन्धर्वों तथा देवताओं के सुख - सभी को ठीक तरह से समझ लेता है। तथा चौदह लोकों के भीतर जो भी सुख सुलभ हैं, उन सबका मूल्यांकन करके परख लेता है कि, ‘इस लोक का सुख तो इतना ही है!’ और उन सुखभोगों के फलस्वरूप उनमें जो दुःख अन्तर्निहित हैं, उनका भी परिमाण करके उन दुःखों को भी जान लेता है। वह बाद में उन दुःखमूलक सुखों से वैराग्य प्राप्त कर केवल एक परमेश्वर में ही दृढ़ प्रीति रखता है। इस प्रकार सांख्यनिष्ठावाले को तो समझ अर्थात् ज्ञान का बल रहता है।

“और, योगनिष्ठावाले को भगवान के स्वरूप में अखंड वृत्ति रहे, वही एक बल रहता है। परन्तु कभी किसी विषम देशकालादि के योग द्वारा कुछ विक्षेप हो जाए, तो भगवान के स्वरूप में रहनेवाली वृत्ति कहीं अन्यत्र भी लग सकती है, क्योंकि योगनिष्ठावाले के पास समझ अर्थात् ज्ञान का बल थोड़ा रहने से कोई न कोई विघ्न अवश्य उपस्थित हो सकता है। यदि एक ही भक्त में सांख्यनिष्ठा तथा योगनिष्ठा दोनों निष्ठाएँ बनी रहें, तो उसमें कोई भी कसर नहीं रहती! और भगवान का जो ऐसा भक्त होता है, वह भगवान की मूर्ति के सिवा अन्य किसी भी पदार्थ में आसक्त नहीं होता! वह यही समझता रहता है कि, ‘भगवान के अक्षरधाम तथा उस धाम में स्थित भगवान की मूर्ति और उस धाम में रहनेवाले भगवान के भक्त, उनके सिवा जो अन्य लोक हैं और उन लोकों में निवास करनेवाले जो देव हैं और उन देवों के जो वैभव हैं, वे सब के सब नाशवंत हैं।’ ऐसा समझकर वह एकमात्र भगवान में ही दृढ़ प्रीति रखता है। अतः ऐसे भक्त को किसी भी प्रकार का विक्षेप नहीं आता है।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ २४ ॥ १५७ ॥

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