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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा मध्य २५

वासनिक त्यागी, और निर्वासनिक गृहस्थ

संवत् १८७९ में श्रावण कृष्णा षष्ठी (८ अगस्त, १८२२) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में दक्षिणवर्ती द्वार के कमरे के बरामदे में पलंग पर विराजमान थे। उन्होंने श्वेत वस्त्र धारण किए थे। उनके समक्ष मुनि तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

उस समय श्रीजीमहाराज ने समस्त परमहंसों से कहा कि, “सुनिए, हम एक प्रश्न पूछते हैं कि: एक तो भगवान का त्यागी भक्त है, जो देह से समस्त व्रत-नियमों को सुदृढ़ रखता है, और उसके अन्तःकरण में विषय-भोगों की वासना अतिशय तीव्र बनी रहती है, फिर भी दैहिक रूप से वह भ्रष्ट नहीं होता, ऐसा त्यागी है। तथा दूसरा भक्त गृहस्थाश्रमी है जो भौतिकरूप से धन एवं स्त्री का प्रसंग रखता है परन्तु वह अन्तर में तो सर्व प्रकार से निर्वासनिक है। अब बताइए कि ये दोनों भक्त जब देहत्याग करेंगे, तब इन दोनों को कैसी गति प्राप्त होगी? वे दोनों समान गति को प्राप्त होंगे या अधिक-न्यून गति को प्राप्त होंगे? इन दोनों के सम्बंध में विस्तृत रूप से अलग-अलग उत्तर दीजिए।”

तब गोपालानन्द स्वामी बोले कि, “उन दोनों में जो त्यागी भक्त है, वह जब देहत्याग करेगा, तब भगवान उसकी विषयोपभोग की तीव्र वासना के कारण मृत्युलोक अथवा देवलोक में उसे बड़ा गृहस्थ बनाएँगे और उसे प्रचुर विषयभोगों की प्राप्ति होगी। जैसे कि भगवद्‌गीता में योगभ्रष्ट पुरुष के लिए जिन भोगों का उल्लेख किया गया है, उन भोगों को वह देवलोक में भोगेगा। परन्तु, वह गृहस्थ हरिभक्त निर्वासनिक होने के कारण देहत्याग करने पर भगवान के ब्रह्मपुर धाम को प्राप्त कर लेगा, तथा भगवान के चरणारविन्दों में निवास करेगा। और, पूर्वोक्त त्यागी भक्त जब विषयोपभोग से तृप्त होगा, तब विषयभोगों से विरक्त होकर मन में पश्चात्ताप करते हुए भगवान का भजन करेगा; फिर निर्वासनिक होकर भगवान के धाम में पहुँचेगा।”

यह सुनकर श्रीजीमहाराज बोले कि, “आपने ठीक बताया। इस प्रश्न का यही उत्तर है।”

तत्पश्चात् मुक्तानन्द स्वामी ने पूछा कि, “ऐसी दृढ़ वासना को टालने की जिसकी इच्छा हो, तो उसे कौन-सा उपाय करना चाहिए?”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “जैसे उकाखाचर को सन्त की सेवा करने का व्यसन पड़ चुका है, वैसा ही भगवान तथा भगवान के सन्त की सेवा करने का जिसे व्यसन हो जाए और उसके बिना एक क्षण भी न रहा जाए, तो उसके अन्तःकरण की मलिन वासना पूर्णतः नष्ट हो जाती है।”

यह सुनकर स्वयंप्रकाशानन्द स्वामी ने प्रश्न पूछा कि, “हे महाराज! ऐसा कौन-सा साधन है कि जिससे भगवान अतिशय प्रसन्न हो जाएँ?”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “घर में केवल एकाध मन अन्न मिलता हो, और उस समय सन्त के प्रति जैसी प्रीति तथा दीनता हो, वैसी ही दीनता और अधीनता, जब उसे एक गाँव का राज्य मिले या पाँच गाँव का राज्य मिले अथवा पचास गाँव का राज्य मिले या सौ गाँव का राज्य मिले अथवा समस्त पृथ्वी का भी राज्य मिल जाए; फिर भी पूर्वकाल में जैसे सन्त के समक्ष अतिशय प्रीतिपूर्वक दीन-अधीन था, वैसा ही दीन-अधीन बना रहे; वैसे ही इन्द्रलोक एवं ब्रह्मलोक का राज्य प्राप्त होने पर भी सन्त के प्रति अपनी दीनता एवं अधीनता की भावना बनाए रखे। ऐसे गृहस्थ पर भगवान की अतिशय प्रसन्नता होती है। और, त्यागी भक्त भी यदि पहले गरीब अवस्था में सभी सन्तों की सेवा-चाकरी करता हो, वैसी ही सेवा-चाकरी स्वयं को भगवान सदृश ऐश्वर्य प्राप्त होने पर भी करता रहे, किन्तु साधुओं के साथ पैतृक दावा पेश न करे और किसी के साथ प्रतिस्पर्धी का भाव न रखे। ऐसे लक्षणवाले साधु पर भगवान अतिशय प्रसन्न हो जाते हैं।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ २५ ॥ १५८ ॥

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