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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा मध्य २६

आत्मज्ञानादि गुणों से अधिक भक्ति का प्राधान्य

संवत् १८७९ में भाद्रपद शुक्ला एकादशी (२८ अगस्त, १८२२) को रात्रि के समय श्रीजीमहाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में श्रीवासुदेव नारायण के मन्दिर के आगे विराजमान थे। उन्होंने सभी श्वेत वस्त्र धारण किए थे। उनके समक्ष परमहंस तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

श्रीजीमहाराज बोले कि, “जो भगवान का भक्त होता है, उसे तो भगवान को अथवा भगवान के भक्त को जो पसंद नहीं होता, वह कभी नहीं करना चाहिए, तथा परमेश्वर के भजन में अवरोध खड़े करनेवाले, चाहे अपने सगे-सम्बंधी ही क्यों न हो, उनका भी त्याग कर देना चाहिए। और अपना किसी भी प्रकार का ऐसा स्वभाव हो, जो भगवान को अच्छा न लगता हो, तो उसका भी शत्रु की तरह त्याग कर डालना चाहिए, परन्तु भगवान से विमुख रहनेवालों का पक्ष कभी नहीं लेना चाहिए। जैसा कि भरतजी ने अपनी माता का पक्ष नहीं लिया था।

“और, भगवान के भक्त को सबसे बढ़कर अपने में ही दोष दिखाई दिया करते हैं। जो अन्य में दोष देखता है और अपने में गुण देखता है, वह सत्संगी होने पर भी आधा विमुख ही है। और, भगवान के भक्तों को चाहिए कि वे भगवान की भक्ति करने के मार्ग में बाधक बननेवाले चाहे आत्मज्ञान, वैराग्य तथा धर्म ही क्यों न हों, उन्हें भी गौण करके भगवान की भक्ति को ही प्रधानता दें। यदि वे सब गुण भक्ति में सहायक होते हों, तब तो ठीक है, ऐसी समझ रखनेवाला ही भगवान का पूरा भक्त कहलाता है। और, जो साधक दूसरों में दोष और अपने में गुण देखता रहता है, वह चाहे कितना ही बड़ा क्यों न हो, फिर भी उसके कल्याण के मार्ग में विघ्न आ जाते हैं।

“जैसे राधिकाजी बहुत बड़ी थीं और भगवान में उनका अत्यधिक प्रेम भी था, परन्तु जब उन्होंने अपने में गुण तथा श्रीकृष्ण भगवान में दोष मान लिया, तब उनके प्रेम में तमोगुण का अंश आ गया। बाद में उन्होंने श्रीकृष्ण भगवान तथा श्रीदामा से झगड़ा किया। इस कारण श्रीदामा ने उन्हें शाप दिया, जिसके फलस्वरूप उन्हें गोलोक में से गिरकर गूजर के घर में अवतार लेना पड़ा। भगवान को छोड़कर उन्हें परपुरुष को अपना पति बनाना पड़ा और भारी कलंक भी लगा। उधर श्रीदामा ने भी अपने में गुण माना तथा राधिकाजी में दोष देखा तो राधिका के शाप के कारण उसे दैत्य होना पड़ा। यद्यपि उस धाम में से गिरने की यह रीति नहीं है; फिर भी जो उनका पतन हुआ, वह तो भगवान की इच्छा ही वैसी थी। उसमें भी भगवान ने ऐसा दिखलाया कि राघिकाजी के समान महान होने पर भी यदि अपने में गुण मानकर वह भगवान के भक्त में दोष देखती हैं, तो उनका भी पतन होता है, तो दूसरे की तो बात ही क्या करें!

“अतः भगवान के भक्त को सभी सत्संगियों में गुण ही देखना चाहिए, और अपने में दोष ही देखना चाहिए। जो इस प्रकार समझता हो, उसकी थोड़ी बुद्धि होने पर भी उसके सत्संग में दिन-प्रतिदिन वृद्धि होती जाती है। परन्तु इसके बिना किसी की बुद्धि अधिक होने पर भी वह सत्संग से दिन-प्रतिदिन पीछे ही हटता जाता है और अन्त में निश्चित ही विमुख हो जाता है। यह रीति सभी स्थानों पर अपनाई जाती है कि कोई सेवक या शिष्य को राजा अथवा गुरु की ओर से कदाचित् डाँट मिले, उस समय यदि वह उस फटकार को अपने हित के लिए समझेगा, तो उस पर राजा या गुरु का अतिशय स्नेह स्वाभाविक ही बढ़ जाएगा, परन्तु यदि कोई अच्छी शिक्षा को उलटा समझे तो उस पर स्नेह नहीं होता। इसी प्रकार, भगवान की भी यही रीति है कि जिसको सीख की बात कही जाए, उसे यदि वह अपने हित के लिए समझे तो उस भक्त पर उनका अतिशय स्नेह हो जाता है, परन्तु उसे उलटा समझनेवालों पर उनका स्नेह नहीं होता।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ २६ ॥ १५९ ॥

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