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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा मध्य २७

बड़े सन्त की प्रसन्नता का कारण मलिन वासना का त्याग

संवत् १८७९ में कार्तिक शुक्ला एकादशी (२५ नवम्बर, १८२२) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में दक्षिणी द्वार के कमरे के बरामदे में विराजमान थे। उन्होंने सभी श्वेत वस्त्र धारण किए थे, कंठ में गुलदावदी के सफ़ेद और पीले पुष्पों के हार पहने थे तथा पाग में दोनों ओर तुर्रे लटक रहे थे। उनके समक्ष परमहंस तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

उस समय श्रीजीमहाराज ने मुक्तानन्द स्वामी से प्रश्न किया, “आपको जब क्रोध होता है, तो किस कारण होता है और कब क्रोध होता है? और हमें तो यदि कोई एक रुपये से लेकर लाख रुपये तक का नुकसान कर डाले, तो भी उस पर अपने लिए क्रोध नहीं आता, परन्तु धर्मलोप करे, या कोई बलवान पुरुष किसी गरीब को पीडा पहुँचाये अथवा कोई अन्याय का पक्ष ले, तब हमें उन लोगों पर दूसरों के लिए हल्का सा क्रोध आता है, किन्तु निजी स्वार्थ के लिए लेशमात्र भी क्रोध नहीं आता। किसी अन्य व्यक्ति के निमित्त आया हुआ क्रोध भी क्षणमात्र नहीं टिकता तथा उससे किसी के साथ ग्रन्थि भी नहीं पड़ती! अब आप बताइए कि आपको क्रोध क्यों आता है और किस प्रकार मिट जाता है?”

यह सुनकर मुक्तानन्द स्वामी ने कहा कि, “किसी भौतिक पदार्थ का योग होता है तब, और किसी की धृष्टता दिखाई देती है, तब मुझे थोड़ा क्रोध आता है, परन्तु तत्काल ही उसका शमन हो जाता है।”

तब श्रीजीमहाराज ने पूछा कि, “आपको इस प्रकार विचार का जो बल रहता है, वह किस कारण से बना रहता है?”

मुक्तानन्द स्वामी ने बताया कि, “सबसे पहले तो भगवान के माहात्म्य पर विचार करने पर यह बात समझ में आ जाती है कि, ‘कोई ऐसा स्वभाव नहीं रखना है कि जिससे भगवान अप्रसन्न हो जाएँ!’ इसके उपरांत शुकजी तथा जड़भरत जैसे सन्तों का मार्ग देखकर ऐसा विचार रहता है कि, ‘साधु में इस प्रकार का अनुचित स्वभाव नहीं रहना चाहिए।’”

यह सुनकर श्रीजीमहाराज बोले कि, “काम-क्रोधादि के जोर को हटाने वाला विचार तो गुणों से परे है और वह आपके जीव में रहता है। इस प्रकार काम-क्रोधादिक गुणों को जो हटाए, ऐसा बल भी पूर्वजन्म का संस्कार है। और, आपके सम्बंध में हमें इतना तो ज्ञात होता है कि आपको जिन-जिन मायिक पदार्थों का योग प्राप्त हो, तो उनके चक्कर में आप पहले तो आ जाते हैं, परन्तु अन्त में उस बन्धन में आप रह नहीं सकते और ऐसे बन्धनों को तोड़कर आप निकल भी जाते हैं।”

यह सुनकर मुक्तानन्द स्वामी ने पूछा कि, “प्रथम बन्धन हो जाता है, ऐसी जो अपरिपक्वता रहती है, वह किस योग से रहती है?”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “जैसा बल पूर्वसंस्कारों में है, वैसा ही बल आठ देश-कालादि एक-एक में रहता है। अतः जब उनका योग होता है, तब बन्धन अवश्य हो जाता है। वे पूर्वसंस्कारों का बल रहने नहीं देते। और यदि हमसे केवल पूर्वसंस्कारों में उल्लिखित सुकृत-दुष्कृत ही होते हों, तो वेदों, शास्त्रों और पुराणों में बताये गए विधि-निषेध के सभी भेद कि ‘यह करना, और यह नहीं करना’ आदि मिथ्या हो जाएँगे। लेकिन, उन बड़े-बड़े ऋषियों ने जो शास्त्र रचे हैं, वे मिथ्या होते ही नहीं। और, अनुचित क्रिया के कारण जहाँ काल, कर्म एवं माया ही नहीं हो, ऐसे भगवान के धाम से जय-विजय का पतन हुआ। तो दूसरी ओर प्रह्लाद के लिए देश-कालादि अशुभ होने पर भी वे नारदजी को प्रसन्न करने के कारण बाधा नहीं डाल सके। परन्तु सनकादिक को कोपायमान करने के कारण देश-कालादि के शुभ होने पर भी जय-विजय का पतन हो गया था। इसलिए जो कल्याण की इच्छा रखता है, उसे वही करना चाहिए, जिससे सत्पुरुष प्रसन्न हो जाएँ। तथा महान सत्पुरुष भी तभी प्रसन्न होते हैं, जब मुमुक्षु के अन्तःकरण में किसी भी प्रकार की मलिन वासना न रहे!

“यह बात भी समझनी चाहिए कि जिसको गरीब पर क्रोधादि का संकल्प हो जाता हो, उसे बड़े (सन्त-भक्त) पर भी हो सकता है। इतना ही नहीं, उसे अपने इष्टदेव पर भी क्रोधादि का मलिन संकल्प हो जाता है। इसलिए जिसे कल्याण की इच्छा हो, वह किसी के प्रति मलिन संकल्प न करें। यदि उसने किसी के प्रति मलिन संकल्प किया, तो उसे भगवान के भक्त तथा भगवान पर भी बुरा संकल्प हो जाता है। और, मुझे अपने द्वारा एक गरीब भी दुःखी होता है, तो अन्तर में ऐसा विचार आता है कि, ‘भगवान सर्वान्तर्यामी हैं और वे एक स्थान पर रहकर भी सबके अन्तःकरण को जानते हैं। अतः मैंने जिसको दुःखित किया, उसी के अन्तःकरण में भगवान विराजमान होंगे, तब हमने भगवान का ही अपराध किया!’ ऐसा सोचकर हम उसको वंदन करते हैं और उसे वह देते हैं, जो कुछ वह चाहता हो! और जिस प्रकार वह प्रसन्न होता है, वैसा करते हैं।

“हमने और भी विचार कर देखा है कि जो अतिशय त्याग करता है अथवा दया रखता है, उससे भी भगवान की भक्ति नहीं हो सकती। ऐसी दशा में उपासना का भी भंग होता है। पूर्वकाल में जो अतिशय त्यागी पुरुष हुए हैं, उनके मार्ग में उपासना का नाश हो गया है। इसलिए, हमने यह विचार करके परमेश्वर की उपासना रखने के लिए त्याग के पक्ष को गौण करके भगवान के मन्दिर बनवाए हैं। उनमें यदि त्याग थोड़ा रहेगा, तो भी उपासना तो बनी रहेगी, और उपासना से अधिकाधिक जीवों का कल्याण होगा। और, जिसको भगवान की भक्ति करनी हो, उसको जैनों की तरह दया रखने से भी कैसे ठीक पड़ेगा? उसको तो परमेश्वर के लिए पुष्प लाने चाहिए, तुलसी लानी चाहिए, भाजी-तरकारी लानी चाहिए, ठाकुरजी के वास्ते बाग-बगीचे बनवाने चाहिए और मन्दिरों का निर्माण कराना चाहिए। अतः जो अत्यन्त त्याग तथा अतिशय दया की भावना रखते हुए मुट्ठी बाँधकर बैठा रहेगा, उससे भगवान की भक्ति नहीं हो सकती। जो भक्तिरहित होगा, तो उपासना का भी नाश हो जाएगा और तब अन्ध परम्परा चल पड़ती है। इसलिए, हमने मन्दिर बनवाए हैं, वह भगवान की अखंड उपासना रखने के लिए निर्मित किए गए हैं। और, जो उपासक होता है, वह अपने धर्म से भ्रष्ट होता ही नहीं। अतः अपने-अपने धर्म में रहकर भगवान की भक्ति और उपासना करते रहना यह हमारा सिद्धान्त है।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ २७ ॥ १६० ॥

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