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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा मध्य २८

जीवन-डोर और दयालुता

संवत् १८७९ में फाल्गुन शुक्ला द्वितीया (१३ फरवरी, १८२३) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में अपने निवास स्थान पर निर्मित वेदी पर पश्चिम की ओर मुखारविन्द करके विराजमान थे। उन्होंने श्वेत धोती धारण की थी तथा सफ़ेद चादर ओढ़ी थी एवं मस्तक पर श्वेत पाग बाँधी थी। उनके समक्ष मुनि तथा विभिन्न प्रान्त के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

तब दवे प्रागजी ने कहा कि, “श्रीमद्भागवत के समान अन्य कोई ग्रन्थ नहीं है।”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “श्रीमद्भागवत तो अच्छा ही है, परन्तु स्कन्दपुराण में जो श्रीवासुदेवमाहात्म्य है, उसके समान कोई ग्रन्थ ही नहीं है, क्योंकि उस ग्रन्थ में धर्म, ज्ञान, वैराग्य, भक्ति तथा अहिंसा का अतिशय प्रतिपादन किया गया है।”

ऐसा कहने के पश्चात् श्रीजीमहाराज बोले कि, “वाल्मीकि रामायण तथा हरिवंश में हिंसा का अतिशय प्रतिपादन किया गया है तथा रघुनाथजी ने भी क्षत्रिय की प्रकृति को अपनाया है। यद्यपि रघुनाथजी शरणागतवत्सल तो थे तथापि शरणागत का थोड़ा-सा भी अपराध दिखाई दे, तो वे उसका परित्याग कर दिया करते थे। जैसे सीताजी पर तनिक-सा लोकापवाद आया, तो उनके अतिप्रिय होने पर भी उन्होंने सीताजी का तत्काल परित्याग कर दिया था।”

तब मुक्तानन्द स्वामी ने कहा कि, “ऐसी तो रामानन्द स्वामी की प्रकृति थी।”

यह सुनकर श्रीजीमहाराज बोले कि, “हमारी प्रकृति तो ऐसी नहीं है। हमें तो परमेश्वर के भक्त पर अतिशय दया रहती है। और, पांडवों में भी अर्जुन की प्रकृति बड़ी दयालु थी। तथा पुरुषमात्र में रामचन्द्रजी तथा अर्जुन जैसे पुरुष नहीं हैं, और स्त्रियों में सीताजी एवं द्रौपदी-जैसी कोई स्त्री नहीं हैं। अब हम अपनी प्रकृति बताते हैं कि हमारा स्वभाव दयालु है, तो भी हरिभक्त के द्रोही के प्रति हमें अभाव रहता है। और, यदि किसी ने हरिभक्त की निन्दा की हो, उसे यदि मैं सुन लूँ, तो उसके साथ बोलने की मैं चाहे कितनी ही इच्छा करूँ, परन्तु उसके साथ बोलने का मन ही नहीं होता। तथा जो भी भगवान के भक्त की सेवा-चाकरी करता है, उस पर हमें अतिशय प्रसन्नता हो जाती है।

“हमारा स्वभाव ऐसा है कि, ‘न तो हम किसी बात में जल्दी अप्रसन्न होते हैं और न तो शीघ्र ही प्रसन्न हो जाते हैं।’ किन्तु जब किसी में, मुझे प्रसन्न करने या अप्रसन्न करने का स्वभाव दीर्घकाल तक देखता हूँ, तब उस पर प्रसन्नता या अप्रसन्नता होती है। परन्तु किसी के कहने-सुनने से किसी पर प्रसन्नता या अप्रसन्नता नहीं होती। और, जिसका जितना गुण मेरे मन में ज्ञात हो जाता है, उसके प्रति उतनी ही कृपा रहती है। वास्तव में मेरा यही स्वभाव है कि भगवान का जो यथार्थ भक्त हो, तो मैं भगवान के उस भक्त का भी भक्त हूँ और मैं भगवान के भक्त की भक्ति करता हूँ, यही मुझमें बड़ा गुण है। जिसमें इतना गुण न हो, उसमें किसी भी प्रकार की पदप्रतिष्ठा शोभा नहीं देती।

“और, जिस-जिसको भगवान के भक्त के प्रति दुर्भाव हुआ है, वे बहुत बड़े होने पर भी अपने स्थान से गिर गए हैं। तथा जिसका भला होता है, वह भी भगवान के भक्त की सेवा से ही सम्भव होता है और जिसका बुरा होता है वह भी भगवद्भक्त का द्रोह करने के कारण ही होता है। यदि जीव भगवान को प्रसन्न करना चाहता है, तो उसका उपाय यही है कि उसे मन, कर्म और वचन द्वारा भगवान के भक्त की सेवा करनी चाहिए, और भगवान के भक्त का द्रोह करना ही भगवान को अप्रसन्न करने का कारण बनता है।

“इसलिए, हमारा यही सिद्धांत है कि भगवान की प्रसन्नता हो, तथा भगवान के भक्त का संग हो, तो भगवान से चाहे अनन्त वर्षों तक दूर क्यों न रहना पड़े, पर मन में किसी भी प्रकार का दुःख नहीं होता। परन्तु भगवान के पास रहते हुए भी यदि भगवान की प्रसन्नता न रही, तो मैं उसे अच्छा नहीं समझता।

“और, समस्त शास्त्रों का भी सार यही है कि: ‘भगवान की जिस प्रकार प्रसन्नता बनी रहे, वैसा ही आचरण करना चाहिए।’ और, जिसमें भगवान की प्रसन्नता हो ऐसा जो न करे, तो भगवान के मार्ग से उसका पतन ही समझ लेना चाहिए। और, जिसको भगवान तथा भगवान के भक्त का संग उपलब्ध है और जिस पर भगवान की प्रसन्नता बनी हुई है, तो वह मृत्युलोक में रहता हुआ भी भगवान के धाम में ही बैठा है। क्योंकि जो पुरुष सन्त की सेवा करता है और भगवान का कृपापात्र बना है, वह भगवान के समीप ही निवास करेगा। यदि कोई भगवान के धाम में रहता हो, लेकिन उस पर भगवान की प्रसन्नता नहीं है तथा उसे भगवान के भक्त से ईर्ष्या है, तो वह भक्त भगवान के धाम से भी अवश्य ही गिर जाएगा। इसलिए, हमें तो भगवान की प्रसन्नता प्राप्त करने के लिए जन्म-जन्मान्तर तक भगवान के भक्त की ही सेवा करनी है, इस प्रकार जैसा हमारा निश्चय है, वैसा ही निश्चय आपको भी करना चाहिए।”

इसके पश्चात् मुक्तानन्द स्वामी आदि समस्त हरिभक्तों ने हाथ जोड़कर कहा, “हे महाराज! हमें भी यही निश्चय रखना है।” इतना कहकर सभी हरिभक्तों ने विनयपूर्वक श्रीजीमहाराज का चरणस्पर्श किया।

इसके पश्चात् श्रीजीमहाराज पुनः बोले कि, “हमने यह जो बात कही है, वह कैसी है? तो वेद, शास्त्र, पुराण आदि पृथ्वी पर जीवात्मा के कल्याण के लिए जितने भी शब्दमात्र हैं, उन सभी का श्रवण करके और उनका सारांश निकालकर हमने यह वार्ता कही है। जो कि परम रहस्य है और सार का भी सार है। और, पूर्वकाल में जो-जो भक्त मोक्ष को प्राप्त कर गए हैं, तथा अब जो-जो भक्त मोक्ष को प्राप्त करेंगे और आज जो भक्त मोक्ष-मार्ग पर चल रहे हैं, उन सबके लिए यह वार्ता जीवन डोर के समान है।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ २८ ॥ १६१ ॥

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