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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा मध्य २९

भगवान में दृढ़ आसक्ति

संवत् १८७९ में फाल्गुन शुक्ला अष्टमी (१८ फरवरी, १८२३) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में उत्तरी द्वार के कमरे के बरामदे में पलंग पर विराजमान थे। उन्होंने श्वेत वस्त्र धारण किए थे। उनके समक्ष मुनि तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “श्रीकृष्ण भगवान के स्वरूप में जिस भक्त का चित्त अत्यन्त आसक्त हुआ हो, उसके ऐसे लक्षण होते हैं कि वह स्वयं लम्बा रास्ता तय करके अत्यधिक थक गया हो और शरीर में बैठने तक की भी शक्ति नहीं रह गई हो, उस समय भी यदि भगवान की वार्ता का कोई प्रसंग छिड़ गया, तो वह उस प्रकार सावधान होकर उस वार्ता को करने और सुनने में तत्पर हो जाता है कि मानो उसने कोई लम्बा सफ़र तय ही नहीं किया था! चाहे कैसे भी रोगादि से पीड़ित हो रहा हो, या चाहे जैसा उसका अपमान हुआ हो, फिर भी वह उस समय यदि भगवान की वार्ता सुनने लगे, तो तुरन्त ही समस्त दुःखों से रहित हो जाता है। और, चाहे वह कैसी भी राज्य-समृद्धि को प्राप्त करके उसमें आसक्त हुआ दिखाई देता हो, परन्तु जिस क्षण उसने भगवान की वार्ता को सुने, तो उसी क्षण उसकी ऐसी ही स्थिति बन जाएगी कि मानो उसे किसी का संग ही नहीं हुआ था! इस प्रकार वह भगवद्वार्ता सुनने में सावधान हो जाता है। जिस भक्त में ऐसे लक्षण हों, उसके सम्बंध में जान लेना चाहिए कि भगवान में उसकी दृढ़ आसक्ति हो गई है।”

तब मुक्तानन्द स्वामी ने पूछा कि, “भगवान में इस प्रकार की दृढ़ आसक्ति किस प्रकार होती है?”

इसका उत्तर देते हुए श्रीजीमहाराज ने कहा कि, “या तो पूर्वजन्म का अतिबलवान संस्कार हो अथवा जिस सन्त को भगवान में ऐसी दृढ़ आसक्ति रही हो, उनकी सेवा करके उन्हें प्रसन्न कर लें, तो भगवान में ऐसी दृढ़ आसक्ति हो सकती है। इन दोनों उपायों के सिवा भगवान में आसक्ति करने का अन्य कोई उपाय नहीं है।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ २९ ॥ १६२ ॥

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