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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा मध्य ३०

स्वर्ण तथा स्त्री बन्धनकारी

संवत् १८७९ में चैत्र शुक्ला नवमी (१९ अप्रैल, १८२३) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में श्रीवासुदेव नारायण के मन्दिर के बरामदे में गद्दी-तकिया पर विराजमान थे। उन्होंने श्वेत धोती धारण की थी, सफ़ेद चादर ओढ़ी थी, काले पल्लेवाली धोती मस्तक पर बाँधी थी, श्वेत पुष्पों का हार पहना था और सफ़ेद फूलों का तुर्रा पाग में लटक रहा था। उनके समक्ष साधु तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

उस समय श्रीजीमहाराज ने कहा कि, “श्रीमद्भागवत आदि जो सत्शास्त्र हैं, वे सत्य हैं और उन शास्त्रों में जो कुछ कहा गया है, वैसा ही होता है, परन्तु उसके विपरीत कुछ भी नहीं होता। देखिए न, श्रीमद्भागवत में स्वर्ण में कलि का निवास बताया गया है, इसलिए स्वर्ण को देखते ही हमें अरुचि हो जाती है। जैसा बन्धनकारी सोना है, वैसा ही बन्धनकारी रूप भी है। क्योंकि जब कोई रूपवती स्त्री सभा में आती है, तब चाहे जितने धैर्यवान क्यों न हो, उसकी दृष्टि भी उसके रूप में आकृष्ट हुए बिना नहीं रहती। अतः सोना और स्त्री, दोनों बन्धनकारी हैं। इन दोनों में बन्धन तो उसी को नहीं होता, जो प्रकृतिपुरुष से पर शुद्ध चैतन्य ब्रह्म है, उसी एकमात्र ब्रह्म को सत्य समझता है, तथा उस ब्रह्म को ही अपना स्वरूप मान लेता है और ब्रह्मरूप होकर परब्रह्म ऐसे श्रीकृष्ण भगवान का भजन करता है और ब्रह्म से नीचे जो प्रकृति और प्रकृति का कार्यमात्र है, उनको असत्य, नाशवंत और तुच्छ समझता है, मायिक नाम-रूप में अतिशय दोषदृष्टि रखता है ओर उन सभी नाम-रूपों में जो अतिशय वैराग्य रखता है, उसी भक्त को स्वर्ण तथा स्त्री बन्धनकारी नहीं होंगे। अन्य सभी को तो इनसे अवश्यरूप से बन्धन होकर ही रहेगा।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ३० ॥ १६३ ॥

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