share

॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा मध्य ३१

मनन द्वारा ब्रह्म का संग

संवत् १८८० में श्रावण शुक्ला चतुर्थी (१० अगस्त, १८२३) को श्रीजीमहाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में अपने ठहरने के स्थान पर निर्मित वेदिका पर गद्दी-तकिया लगवाकर विराजमान थे। उन्होंने श्वेत वस्त्र धारण किए थे और काले पल्लेवाली धोती मस्तक पर बाँधी थी। उनके समक्ष परमहंस तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

उस समय श्रीजीमहाराज प्रागजी दवे से श्रीमद्भागवत के अन्तर्गत कपिल गीता की कथा का पाठ करवा रहे थे। कथा समाप्त होने पर श्रीजीमहाराज परमहंसों को कहने लगे कि, “सर्व कारणों के भी कारण, अक्षरातीत पुरुषोत्तम जो वासुदेव भगवान हैं, वे ही महापुरुषरूप द्वारा महा-माया में वीर्य को धरते हैं। वह पुरुष अक्षरात्मक तथा मुक्त है। उसी को ब्रह्म कहते हैं। उस पुरुष ने माया में वीर्य धरा, तब उस माया से प्रधानपुरुष हुए तथा उसके द्वारा वैराजपुरुष उत्पन्न हुए।

“इस प्रकार वैराजपुरुष उस प्रधानपुरुष का पुत्र कहा जाता है। जैसे संसार में किसी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यादि प्राकृत मनुष्य के घर उसकी स्त्री से पुत्र होता है, वैसे ही वैराजपुरुष होते हैं। अतः वैराजपुरुष इस जीव के सदृश ही हैं तथा उनकी क्रिया भी जीव की क्रिया की भाँति ही होती है। उन वैराजपुरुष की आयु द्विपरार्ध काल तक होती है। जैसे जीव की तीन अवस्थाएँ जाग्रत, स्वप्न तथा सुषुप्ति हैं, उसी तरह इस जगत की उत्पत्ति, स्थिति तथा प्रलयरूपी उन वैराजपुरुष की तीन अवस्थाएँ हैं तथा विराट, सूत्रात्मा एवं अव्याकृत उन वैराजपुरुष के ये तीन शरीर होते हैं। वे शरीर अष्टावरणयुक्त हैं। तीनों शरीर महत्तत्त्वादि चौबीस तत्त्वों द्वारा हुए हैं।

“उस विराट में इन्द्रियों, अन्तःकरण तथा देवताओं ने प्रवेश तो किया और वे उसे जगाने भी लगे, किन्तु विराट में जीव होते हुए भी वह उठा नहीं। जब क्षेत्रज्ञ वासुदेव भगवान पुरुषरूप द्वारा उसमें प्रविष्ट हुए, तब वह विराट शरीर उठ गया। इस प्रकार वे वैराजपुरुष अपनी क्रिया करने के लिए समर्थ हुए।

“वे ही भगवान इस जीव को प्रकाशित करने के लिए सुषुप्तिरूप माया से परे रहते हुए भी जीव में साक्षीरूप होकर रहते हैं। फिर भी, जीव को देह, इन्द्रियों तथा विषयों का अधिक संग हुआ है। अतः संगदोष के कारण यह जीव देहादिरूप हो गया है। जब यह जीव उनके संग को छोड़कर यह समझने लगता है कि ‘माया से मुक्त तथा माया से परे रहनेवाला ब्रह्म ही मेरा स्वरूप है’ और इसी प्रकार निरंतर मनन करते हुए यदि वह ब्रह्म का संग करता है, तो ब्रह्म का गुण उस जीव में आ जाता है। यद्यपि उसने वह वार्ता सुनी तो है, फिर भी इस बात की निरंतर स्मृति नहीं रहती, यह उसका एक बड़ा दोष है। इस प्रकार, ईश्वररूपी वैराजपुरुष तथा इस जीव इन सब के प्रकाशक पुरुषरूप में पुरुषोत्तम वासुदेव ही हैं।

“वे वैराजपुरुष भी जीव के समान माया से बद्ध हैं। वे द्विपरार्ध कालपर्यन्त आयुष्य भोगते हुए बद्ध ही रहते हैं। जब उनका प्रलय होगा, तब उन्हें उन पुरुष का साक्षात् सम्बंध हो जाएगा। क्योंकि वे उसके पिता हैं जो कि समर्थ हैं, अतः वे उनकी उतनी रक्षा किया करते हैं। और वैराजपुरुष का माया के साथ सम्बंध है, इसलिए प्रलय के अन्त में वह पुनः माया से उत्पन्न होता है। और, इस जीव की भाँति ही वैराजपुरुष भी माया से बद्ध तथा असमर्थ रहता है, क्योंकि उसका पिता भी बन्धन युक्त और असमर्थ ही है इसलिए, ऐसा असमर्थ पिता अपने पुत्र की क्या सहायता कर सकता है? अतएव, उन दोनों को सुषुप्तिरूप माया का सम्बंध निरंतर बना रहता है, वह सम्बंध मिटता नहीं। वह तो पूर्वोक्त रीति से मनन द्वारा, अपने प्रकाशदाता ब्रह्म का संग करे तभी मिटता है।

“तथा यह भी समझें कि वैराजपुरुष भी संकर्षण, अनिरुद्ध तथा प्रद्युम्न की उपासना करते हैं। वह कैसे? तो अपनी प्रलयरूपी अवस्था में वे संकर्षण की उपासना करते हैं। स्थितिरूप अवस्था में प्रद्युम्न की उपासना करते हैं तथा उत्पत्तिरूपी अवस्था में अनिरुद्ध की उपासना करते हैं। ये संकर्षणादि तीनों वासुदेव भगवान के सगुण स्वरूप हैं। वासुदेव की उपासना के बल से वह वैराजपुरुष उत्पत्ति, स्थिति तथा प्रलयरूपी क्रिया में सामर्थ्य प्राप्त करते हैं। और, जब तक वैराजपुरुष तीनों सगुण स्वरूपों की उपासना करते हैं, तब तक उनका सम्बंध उत्पत्ति, स्थिति तथा प्रलयरूपी माया के साथ निरन्तर जुड़ा रहता है। परन्तु जब वह निर्गुण वासुदेव भगवान की उपासना करता है, तब वह वैराजपुरुष माया का त्याग करके ब्रह्मरूप हो जाता है।

“जैसे यह जीव जब ब्रह्मादि देवतारूप भगवान की उपासना करता है, तो वह धर्म, अर्थ एवं कामरूपी फल को ही प्राप्त करता है, परन्तु यदि वह भगवान के राम, कृष्ण आदि अवतारों की उपासना करे, तो वह ब्रह्मरूप हो जाए और उसकी मुक्ति हो जाए। उसी प्रकार विराटपुरुष भी वासुदेव की उपासना से ब्रह्मरूप होते हैं।

“तथा शास्त्रों में कहा गया है कि वैराजपुरुष द्वारा अवतारों की उत्पत्ति होती है, इस विषय में तो हमें यह समझना चाहिए कि: ‘स्वयं वासुदेव नारायण ही अक्षरात्मक पुरुष द्वारा वैराजपुरुष में प्रविष्ट होकर विराजमान होते हैं, तब अवतार कहा जाता है। इसलिए, सभी अवतार तो वासुदेव भगवान के ही हैं।’ वे वासुदेव भगवान जब प्रतिलोम भाव के द्वारा उन वैराजपुरुष से पृथक् हो जाते हैं, तब केवल वैराजपुरुष से अवतार होने की कोई सम्भावना नहीं रहती। अतः वैराजपुरुष में वासुदेव का प्रवेश होने से ही उनके द्वारा अवतार होने की बात कही गई है। परन्तु जब तक क्षेत्रज्ञ वासुदेव ने वैराजपुरुष में प्रवेश नहीं किया था, तब तक वैराजपुरुष अपनी क्रिया सम्पन्न करने में भी समर्थ नहीं हुए थे। अतः पहले जिन अक्षरात्मक पुरुष की बात कही, वे जब माया में गर्भ धारण करते हैं, तब प्रधानपुरुष द्वारा वैराजपुरुष रूप पुत्र उत्पन्न होता है। इसी प्रकार उसी माया में से अनेक प्रधानपुरुषों द्वारा दूसरे भी अनेक वैराजपुरुष रूपी ब्रह्मांड उत्पन्न होते हैं। वे पुरुष तो निरन्न हैं, मुक्त हैं तथा ब्रह्म हैं और माया के कारण हैं। यद्यपि वे माया में लोमरूप से रहते हैं, फिर भी उन्हें माया का बंधन नहीं है। माया में उन्हें भोग की इच्छा भी नहीं होती। वे स्वयं ब्रह्मसुख से सुखी एवं पूर्णकाम हैं। और जो वैराजपुरुष ईश्वर हैं, वे माया के भोगों को भोगकर प्रलयकाल में माया का परित्याग करते हैं। उसी समय जो जीव हैं, वे तो माया के भोगों को भोगने के पश्चात् दुःखी होकर माया में ही विलीन हो जाते हैं।”

इन बातों को सुनकर शुकमुनि ने पूछा कि, “पुरुषोत्तम वासुदेव पुरुषरूप द्वारा अनेक ब्रह्मांडों की उत्पत्ति, स्थिति तथा प्रलय के कर्ता हैं। इसीलिए, शास्त्रों में प्रायः उस पुरुष को ही पुरुषोत्तम कहा गया है। अतः यह बताइए कि उस पुरुष में तथा स्वयं पुरुषोत्तम में कितना अन्तर है?”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “जितना इस जीव तथा वैराजपुरुषरूपी ईश्वर में अन्तर है, तथा जितना ईश्वर तथा अक्षरात्मक पुरुष में अन्तर है, वैसे ही उस पुरुष एवं पुरुषोत्तम वासुदेव भगवान में उतना ही भारी अन्तर रहता है। पुरुषोत्तम वासुदेव तो सर्व के स्वामी हैं। जबकि ऐसे अक्षरात्मक ब्रह्मरूप पुरुष अनेक हैं, जो वासुदेव के चरणारविंदों की उपासना करते हैं तथा स्तुति करते हैं। इस प्रकार पुरुषोत्तम, पुरुष,२४० ईश्वर, जीव और माया ये पाँच भेद अनादि हैं। इस प्रकार की वार्ता हमने कईबार की है, परन्तु उसका मनन करके अपने अन्तःकरण में उस पर दृढ़तापूर्वक निश्चय नहीं करते, अतः शास्त्रों के विभिन्न प्रकार के शब्द सुनकर समझ में स्थिरता नहीं रहती। यदि दृढ़ता पूर्वक इस बात की स्पष्टता अन्तःकरण में की हो, तो उसकी समझ किसी अन्य शब्दों को सुनने से भी विचलित नहीं हो सकती। इसलिए इस वार्ता को बड़े ही व्यवस्थित रूप से सोचना तथा लिखना चाहिए!”

इस प्रकार, श्रीजीमहाराज ने जो वार्ता कही, वह लिखी गई है।

॥ इति वचनामृतम् ॥ ३१ ॥ १६४ ॥

* * *

This Vachanamrut took place ago.


२४०. यहाँ ‘पुरुष’ विषयक विचार-विमर्श होने के कारण ‘पुरुष’ का उल्लेख किया गया है, वास्तव में यह चौथा अनादि तत्त्व ‘अक्षरब्रह्म’ ही है। (वचनामृत गढ़डा प्रथम ७) सत्संगिजीवन इत्यादि ग्रंथों में ‘पुरुष’ का कोई अनादि भेद नहीं कहा है। क्योंकि ‘पुरुष’ तो जीव तथा ईश्वर कोटि से आया हुआ मुक्तात्मा है; अतः वह अनादि भेद नहीं हो सकता।

SELECTION
प्रकरण गढ़डा प्रथम (७८) सारंगपुर (१८) कारियाणी (१२) लोया (१८) पंचाळा (७) गढ़डा मध्य (६७) वरताल (२०) अमदावाद (३) गढ़डा अंत्य (३९) भूगोल-खगोल वचनामृतम् अधिक वचनामृत (११)

Type: Keywords Exact phrase