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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा मध्य ३२

कुटुम्बीजनों का सम्बंध

संवत् १८८० में श्रावण शुक्ला पंचमी (११ अगस्त, १८२३) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में अपने निवास स्थान पर विराजमान थे। श्रीजीमहाराज ने श्वेत वस्त्र धारण किए थे, उनके मस्तक पर काले पल्ले की सफ़ेद धोती बाँधी थी, कंठ में पुष्पों के हार पहने थे, कानों पर पुष्पगुच्छ लगे हुए थे और मस्तक पर फूलों के तुर्रे लटक रहे थे। श्रीजीमहाराज के समक्ष परमहंस तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

उस समय श्रीजीमहाराज सब हरिभक्तों को संकेत करके बोले कि, “इस संसार में अपने कुटुम्बीजनों के साथ जो सम्बंध है, वह तो थूहर के वृक्ष अथवा बरगद या पीपल की शाखा की तरह है। जो एक स्थान से काटकर दूसरे स्थान पर रोप दिया, तो उगकर वृक्ष हो जाता है। अगर आम और नीम को एक बार काट दिया, तो वह फिर नहीं उगता। वैसे ही कुटुम्बीजनों के सिवा अन्य व्यक्ति का जो सम्बंध है, वह आम्रवृक्ष के समान है, जिसे एक बार काट दिया, तो दूसरी बार उगने की संभावना नहीं है। किन्तु, कुटुम्बियों का सम्बंध थूहर और बड़ के पेड़ की भाँति है, जो काट दिए जाने पर भी धरती पर पड़े-पड़े पल्लवित हुए बिना नहीं रहता। वह कौटुंबिक सम्बंध तब मिटता है, जब स्थूल, सूक्ष्म और कारण नामक तीन शरीरों से भिन्न जीवात्मा को अपना स्वरूप समझकर और उस जीवात्मा में भगवान की मूर्ति को धारण करके तथा जाति, वर्ण एवं आश्रम के मान को छोड़कर केवल भगवान के स्मरण में तल्लीन हो जाए, तो कुटुम्बीजनों का सम्बंध भली भाँति मिट सकता है। इसके सिवा इस सम्बंध की समाप्ति के लिए अन्य कोई भी उपाय नहीं है।

“और, जीव का कल्याण हो जाए तथा जीव माया को पार करके ब्रह्मरूप हो जाए, इसका कारण पुरुषोत्तम वासुदेव भगवान के प्रत्यक्ष स्वरूप का ज्ञान, ध्यान, कीर्तन तथा कथा आदि ही हैं। इन उपायों के द्वारा ही जीव माया को पार करके अति महत्ता को प्राप्त कर लेता है तथा भगवान के अक्षरधाम को प्राप्त कर लेता है। और आत्मनिष्ठा, वैराग्य तथा धर्म तो भगवान की भक्ति में सहायता करनेवाले उपकरण मात्र हैं। किन्तु बिना भगवान की भक्ति के, अकेले वैराग्य, आत्मनिष्ठा तथा धर्मरूपी साधन जीव को माया से पार लगाने में समर्थ नहीं हो सकते। और, कदाचित् किसी में अतिशय धर्म, आत्मनिष्ठा तथा वैराग्य न भी हो, परन्तु उसमें यदि अकेली भगवान की भक्ति का गुण होगा, तो उस जीव का कल्याण हो जाएगा और वह माया से पार लग जाएगा; इतना धर्मादि की अपेक्षा भक्ति में महत्त्व है। फिर भी, यदि धर्मादि अंगों की सहायता मिल जाए, तो भगवान की भक्ति में किसी भी प्रकार का विघ्न उपस्थित नहीं हो सकता। और, यदि धर्मादि अंगों की सहायता न मिली, तो विषम देशकालादि रहने पर भक्ति के मार्ग में विघ्न अवश्य होता है। इसलिए, धर्मादि अंगों के सहित भगवान की भक्ति करनी चाहिए। यदि ऐसी भक्ति करनेवाले भक्त को अशुभ देश, काल, क्रिया और संग में प्रवृत्ति हो गई, तो भगवान का भक्त होने पर भी उसका अन्तःकरण मलिन हो जाता है और उसके स्वभाव का कोई ठिकाना ही नहीं रहता। इसलिए अशुभ देश, अशुभ काल, अशुभ क्रिया और तथा बुरे संग का परित्याग करके शुभ देश, शुभ काल, अच्छी संगति, अच्छी क्रिया इत्यादि में प्रवृत्त रहना चाहिए; परंतु अशुभ देशकालादि का संग ही नहीं करना चाहिए!”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ३२ ॥ १६५ ॥

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