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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा मध्य ३३

निष्काम व्रत

संवत् १८८० में श्रावण कृष्णा त्रयोदशी (३ सितम्बर, १८२३) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में अपने निवासस्थान में पलंग पर गद्दी-तकिया लगवाकर विराजमान थे। उन्होंने श्वेत वस्त्र धारण किए थे। उनके समक्ष मुनि तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

उस समय श्रीजीमहाराज समस्त सन्तों तथा हरिभक्तों से कहने लगे कि, “सबसे पहले हम अपनी मान्यता एवं गुणों की बात कहेंगे, उसके बाद आप सब भी अपना-अपना मोक्ष किस प्रकार माना है, उसकी बात करना और यह भी बताना कि हम इस प्रकार आचरण करेंगे, तो इस लोक और परलोक में भगवान हम पर प्रसन्न रहेंगे। इस प्रकार आपने जो भी मान्यता बनाए रखी हो, उसे बताना।”

ऐसा कहकर श्रीजीमहाराज अपनी रुचि की बात बताने लगे कि, “हमें तो जिस पदार्थ में कुछ प्रीति मालूम हो जाए, फिर उसका परित्याग कर दें, तभी सुख होता है। और, भगवान के भक्त के सिवा जो भी मनुष्यमात्र हैं या पदार्थमात्र हैं, उनकी स्मृति हो आई हो, तो उससे हम अतिशय दूरी बना लें, तब ही सुख होता है। भगवान के भक्त के प्रति हमारे हृदय में किसी भी तरह का दुर्भाव नहीं होता। और, हमें तो बिना कोई इच्छा किए भी पंचविषयों का संयोग बरबस रहा करता हो, किन्तु फिर भी हम उन्हें नहीं चाहते हैं और उन्हें पैरों से ठुकरा देते हैं।

“और जिस दिन से हमने जन्म लिया है, उस दिन से लेकर आज तक हमें किसी भी दिन जाग्रत अथवा स्वप्नावस्था में द्रव्य या स्त्री के सम्बंध में किसी भी प्रकार का अशुभ संकल्प हुआ हो, तो इन समस्त परमहंसों की सौगंध है! इस प्रकार हम सदैव निर्दोष रहे हैं। अतः जो हमारे प्रति दोषबुद्धि रखेगा, उसे जाग्रत तथा स्वप्नावस्था में अशुभ संकल्प होंगे और देहत्याग के समय अत्यंत कष्ट होगा। और हमारे अन्तःकरण में एकमात्र भगवान के स्वरूप का ही चिंतन होता रहता है। ऊपर-ऊपर से हम सबसे इसलिए घुलमिलकर रहते हैं कि भगवान के भक्त जीवात्माओं की भलाई हो। फिर भी, जिस दिन हमारे हृदय में भगवान या भगवान के भक्तों के सिवा और कहीं भी स्नेह दिखाई देगा, तो हम मानेंगे कि, ‘हम अपनी स्थिति से विचलित हुए!’ परन्तु हमें ऐसा निश्चय है कि, ‘हम इस स्थिति से कभी भी विचलित होते ही नहीं!’ इस प्रकार, हमने अपनी मान्यता एवं गुणों की बात बताई। अब आप सब अपनी-अपनी मान्यता एवं गुणों की बात बताइए।”

तब सभी सन्तों तथा हरिभक्तों ने अपनी रुचि की बातें बताईं कि, हम इस लोक में या परलोक में इस प्रकार की मान्यता में रहेंगे, या इस प्रकार के गुण आत्मसात् करेंगे तब भगवान हम पर कृपा करेंगे। इस प्रकार उन्होंने जो भी दृढ़ता की थी, सब कुछ बतला दिया। उनमें से किसी ने कहा कि हमारा गुण है भगवान के बिना अन्य प्रत्येक स्थान से वैराग्य रखना, तो किसी ने प्रसन्नता के साधन में आत्मनिष्ठा को बताया, तो किसी ने भगवान में प्रीति रखना एवं किसी ने धर्माचरण करते रहना आदि विभिन्न बातें कहीं। परन्तु श्रीजीमहाराज ने अपने मन में जो धारणा बना रखी थी, उसे किसी ने नहीं बताया।

अतः श्रीजीमहाराज बोले कि, “किसी को यदि मात्र निष्काम व्रत में दृढ़ता हो, तो उसे इस लोक तथा परलोक में कभी-कहीं पर भी भगवान से पृथकता नहीं रहेगी तथा उस पर हमारे स्नेह में भी कभी कमी नहीं होगी। और, यहाँ के हरिभक्तों में निष्काम व्रत के प्रति अतिशय दृढ़ता बनी हुई देखकर ही हम यहाँ टिके हुए हैं। जिसे निष्काम व्रत के प्रति अतिशय दृढ़ता बनी हुई है, वह चाहे हज़ार कोस दूर क्यों न हो, हम उसके पास ही हैं। परन्तु जिसे इस व्रत में शिथिलता है, वह हमारे पास रहते हुए भी हमसे एक लाख कोस दूर है! वास्तव में हमें निष्कामी भक्त के हाथ की गई सेवा ही प्रिय लगती है। जैसे कि ये मूलजी ब्रह्मचारी अतिशय दृढ़ निष्कामी हरिभक्त हैं, अतः उनके द्वारा की गई सेवा हमें अत्यंत प्रिय लगती है। यदि कोई अन्य पुरुष सेवा-चाकरी करता है, तो वह हमें उतनी रास नहीं आती, जितनी मूलजी ब्रह्मचारी की सेवा रास आती है!

“और, हम जो-जो वार्ता करते हैं, उसमें भी निष्काम व्रत की बात का ही अतिशय प्रतिपादन होता है। तथा जिस दिन से हम प्रकट हुए हैं, उस दिन से हम निष्काम व्रत की ही दृढ़ता करते आ रहे हैं। और, सभा हो रही हो, तब यदि किसी स्त्री अथवा पुरुष को आपस में देखने से कुछ अंतर आ जाए और वह उसको छिपाने के लिए चाहे जितनी युक्ति करे, परन्तु हमें जानकारी हुए बिना नहीं रहती। तब उस मनुष्य पर हमारी अत्यंत अप्रसन्नता हो जाती है। हमारे मुख पर भी कालिमा छा जाती है और उसका घोर दुःख होता है, किन्तु मर्यादावश कुछ अधिक कह नहीं सकते। इसके अतिरिक्त हमारी रीति साधुता की है। अतः मन ही मन समझकर मौन रह जाते हैं। परन्तु यदि राजा जैसे तौर-तरीके अपनाएँ, तो उसको कठोर दंड मिल सकता है। इसलिए, हमने पहले से ही बड़े-बड़े सभी परमहंसों और सभी बड़ी स्त्री-भक्तों से यह बात कह रखी है कि यदि सत्संग में किसी पुरुष तथा स्त्री को कभी निष्काम व्रत के पालन में कोई चूक हो गई, तो ऐसी बात हमें सुनाना मत! क्योंकि ऐसी बात सुनने पर हमें उतना ही शोक होता है, जितना कि किसी वन्ध्य को वर्षों बाद पुत्रजन्म हुआ हो, और उस नवजात पुत्र की मृत्यु हो गई हो! ऐसी हालत में हमारे मन में यह विचार तक उत्पन्न हो जाता है कि हमें समूचे सत्संग को छोड़कर चले जाना है! अतः जो निष्काम व्रत का पालन करता है, वही हमें प्रिय है और इस लोक तथा परलोक में उसका और हमारा सुदृढ़ मिलाप रहता है।”

तब हरजी ठक्कर ने प्रश्न किया कि, “निष्काम व्रत (ब्रह्मचर्य) कौनसे उपाय से अतिशय सुदृढ़ हो सकता है?”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “उसके लिए एक ही उपाय नहीं है। उसके लिए तो तीन उपाय हैं। जैसे हाँकनेवाला, बैल, पहिये, धुर, जुआ आदि सब कुछ मिलकर एक गाड़ी बनती है, वैसे ही निष्काम व्रत को सुदृढ़ बनाने के लिए भी कुछेक सामग्री की आवश्यकता रहती है। उसमें भी तीन उपाय अत्यन्त मुख्य हैं। उनमें से सबसे पहला उपाय है, मन को वश में करना। मन में निरन्तर ऐसा मनन करें कि ‘मैं आत्मा हूँ, देह नहीं’ तथा उसको भगवान की कथा श्रवणादि नवधा भक्ति में निरन्तर जोड़े रखना! किन्तु क्षणमात्र के लिए भी उसे बेकार न रहने देना! जैसे किसी मनुष्य ने भूत को वश में कर लिया था, किन्तु जब वह भूत को कोई काम नहीं बताता, तब भूत उसे खाने को तैयार हो जाता था! वैसे ही यह मन भी भूत के समान ही है। जब उसे भगवद्भक्ति में नहीं लगाया जाएगा, तब वह अधर्म के संकल्प करेगा और वही है, भूत की तरह जीव को खाने की मन की तत्परता! इसलिए, मन को निरन्तर भगवान के कथा-कीर्तनादि में जोड़े रखना, तभी जानना कि मन वश में हो गया है।

“इस व्रत की दृढ़ता के लिए दूसरा उपाय है कि प्राण को नियमबद्ध रखना! जैसे गीता में भगवान ने बताया है कि, ‘आहार-विहार में संयम बरतना। खाने की अतिशय लोलुपता मत रखना!’ इस प्रकार बरतेगा तभी जानना कि उसके प्राण नियमबद्ध हैं। प्राणों को बिना नियमबद्ध किए तो मन से खाने की तृष्णा मिटती ही नहीं और उसकी रसनेन्द्रिय अनेक प्रकार के रसों की ओर दौड़ती ही रहेगी! ऐसे मौके पर उसने जो भी इन्द्रियाँ वश में की हैं, वे भी स्वच्छंद हो जाएँगी! अतः आहार को नियमबद्ध रखते हुए प्राण को नियमानुकूल बनाना चाहिए।

“इस व्रत की दृढ़ता का तीसरा उपाय यह है कि इस सत्संग में जिस-जिसको जो-जो नियम बताए गए हैं, उनके अनुसार अपनी देह को बनाए रखना। इस प्रकार जो पुरुष इन तीन नियमों को सुदृढ़ बनाए रखता है, उसको निष्काम व्रत की अतिशय दृढ़ता रहती है। इस विषय में कभी ऐसी धारणा न रखें कि, ‘इस प्रकार निष्कामव्रत रखना अत्यंत कठिन है।’ क्योंकि वस्तुतः जो साधु होता है, उसे ऐसे नियमों का पालन करना कोई दुष्कर साधना नहीं है। जो वास्तव में साधु होता है, वह तो काम, क्रोध, लोभादि शत्रुओं का बल होने पर भी भगवान को प्रसन्न करने के लिए उन दोषों का परित्याग कर दे, तभी वह पक्का साधु कहलाता है। और, मनुष्यदेह द्वारा न हो सके, ऐसा क्या है? जिसका भी हम नित्य अभ्यास करें, तो वह अवश्य सिद्ध हो जाता है। जैसे कुएँ के किनारे पर लगे कठिन पत्थर पर भी नित्य पानी खींचते रहने से नरम डोरी भी उस पत्थर को काट देती है, वैसे ही जो साधु है, वह यदि जिस स्वभाव को टालने के लिए सदैव अभ्यास करता रहता है तो वह स्वभाव कब तक टिक सकेगा? उसका तो निश्चय रूप से नाश हो जाएगा। इसलिए, जिसको निष्काम व्रत रखना हो उसे इन तीन उपायों को दृढ़तापूर्वक अपना लेना चाहिए।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ३३ ॥ १६६ ॥

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