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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा मध्य ३४

चौबीस तत्त्व जड या चैतन्य?

संवत् १८८० में भाद्रपद शुक्ला प्रतिपदा (५ सितम्बर, १८२३) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में पूर्वी द्वार के कमरे के बरामदे में विराजमान थे। उन्होंने श्वेत धोती पहनी थी, सफ़ेद चादर ओढ़ी थी और काले पल्ले की धोती मस्तक पर बाँधी थी। उनके समक्ष परमहंस तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी। परमहंस दुक्कड़-सरोद लेकर कीर्तन-गान कर रहे थे।

उस समय श्रीजीमहाराज बोले कि, “अब कीर्तन रोककर प्रश्नोत्तर का प्रारम्भ करें, जिससे कि आलस्य मिट जाए!” ऐसा कहकर श्रीजीमहाराज कहने लगे कि, “सबसे पहले मैं एक प्रश्न पूछता हूँ कि इस जीव के साथ रहे इन्द्रियाँ और अन्तःकरण आदि चौबीस तत्त्व माया का ही कार्य है। वे चौबीसों तत्त्व जड हैं या चैतन्य?”

तब परमहंसों ने कहा कि, “वास्तव में ये तत्त्व तो चैतन्य हैं।”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “ये तत्त्व यदि चैतन्य ठहरे, तब शरीरस्थ जीव के साथ चौबीस तत्त्वों के भी चौबीस जीव हुए। ऐसी स्थिति में जीवात्मा का कल्याण होगा, वह कल्याण प्रत्येक तत्त्व के लिए समान हिस्से के अनुसार विभाजित हो जाएगा, अथवा यदि जीवात्मा ने कुछ पाप किया हो, वह पाप के परिणाम भी चौबीस हिस्सों में विभाजित होकर सभी को भोगना पड़ेगा! उस समय यह नहीं कहा जाएगा कि सुख-दुःख का भोक्ता केवल एक जीव ही है। और, संचित, प्रारब्ध एवं क्रियमाण, ये तीन प्रकार के कर्म भी अकेले जीव से ही सम्बंधित नहीं होंगे। पूर्वकाल में नारद-सनकादि जो मुक्त हो चुके हैं, उनका एकमात्र अपना-अपना जीव ही मुक्त हुआ है, परन्तु उस जीवात्मा के साथ-साथ चौबीस तत्त्वों ने भी मुक्तस्थिति प्राप्त नहीं की थी!”

इस प्रकार श्रीजीमहाराज ने तो इन तर्कों से सभी तत्त्वों को निर्जीव प्रमाणित कर दिया और परमहंसों के उत्तर को असत्य प्रमाणित कर दिया। अतः किसी परमहंस से उत्तर नहीं हो पाया।

तत्पश्चात् श्रीजीमहाराज स्वयं कहने लगे कि, “लीजिए, इसका उत्तर हम देते हैं कि ये तत्त्व कार्य-कारण भेद से दो प्रकार के हैं। उनमें कारणरूप जो तत्त्व है, वह चैतन्य है, किन्तु कार्यरूप तत्त्व जड है। और, जीवात्मा स्वयं अपनी विशेष सत्ता द्वारा हृदय में निवास करके रहता है तथा अपनी सामान्य सत्ता से वह देह, इन्द्रियों और अन्तःकरण में तादात्म्य रूप से मिल गया है। अतः देहादि सब कुछ चैतन्य जैसे ही दिखते हैं। जबकि वह तो केवल जड ही हैं! और, जब यह जीव भगवान का भक्त होकर भगवान के धाम में जाता है, तब जड तत्त्व धरे ही रह जाते हैं। वे चौबीस तत्त्व माया में से हुए हैं, इसीलिए वे मायारूप हैं और जड हैं। और, वह देह, इन्द्रिय और अन्तःकरण रूप से पृथक्-पृथक् दिखाई पड़ते हैं, वह तो जैसे एक पृथ्वी ही त्वचा, मांस, मज्जा, अस्थियों एवं स्नायुओं के पाँच रूपों से बनी हुई है, वैसे ही वह माया परमेश्वर की इच्छा से देह-इन्द्रिय आदि अलग अलग रूप से दिखायी पड़ती है।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ३४ ॥ १६७ ॥

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