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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा मध्य ३५

भगवान के चरित्रों का गान

संवत् १८८० में भाद्रपद शुक्ला एकादशी (१६ सितम्बर, १८२३) को रात्रि की पिछली छः घड़ी शेष रही तब श्रीजीमहाराज नींद से उठकर श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में ज्वार की खौं पर पलंग बिछवाकर विराजमान हुए। उस समय उन्होंने श्वेत धोती धारण की थी, सफ़ेद चादर ओढ़ी थी और श्याम पल्ले की धोती मस्तक पर बाँधी थी।

उस समय श्रीजीमहाराज परमहंसों तथा हरिभक्तों को बुलवाकर उनसे कहने लगे कि, “आज तो हमें बहुत नींद आई और हमने उठने की बहुत कोशिश की लेकिन उठा नहीं गया। उस निद्रावस्था में हमने बहुत विचार किया, फिर उस पर जो निश्चय किया है, वह बताता हूँ कि मैं रामानन्द स्वामी के सान्निध्य में आने के पहले से ही आत्मा को साक्षात् देखता था और अब भी देखता हूँ। वह आत्मा सूर्य के समान प्रकाशयुक्त है। और, मुझे अपनी समस्त इन्द्रियों की क्रिया करते हुए भी आत्मा का क्षणमात्र विस्मरण नहीं होता। हालाँकि ऐसा आत्मदर्शन होना अत्यन्त कठिन है, वह तो पूर्व के अनेक जन्मों के सत्संस्कारवाले किसी बिरले को ही होता है। अन्य मनुष्य एक सौ वर्षों तक भी आत्मा पर विचार करता रहे, फिर भी आत्मा का दर्शन नहीं होता। वह तभी संभव है, जब मुमुक्षु श्रीकृष्ण भगवान की मूर्ति का ध्यान करे! तब उसे आत्मा को देखने में कोई कठिनाई नहीं होती। किन्तु भगवान के ध्यान के बिना केवल आत्मा के विचार द्वारा आत्मा ज्ञात हो, या उसके दर्शन हो, ऐसी आशा किसी को नहीं रखनी चाहिए।

“और, भगवान की उपासना करना, भगवान के चरित्रों का गान करना, उन्हें सुनना, भगवान का नामस्मरण करना तथा अपने-अपने धर्म में रहना, इन साधनों के द्वारा जीव का कल्याण अवश्य होता है। उसमें कोई कठिनाई नहीं होगी और यह तो ऐसा है कि जैसे जहाज में बैठकर समुद्र को पार किया जाए, ऐसा सुगम मार्ग है। किन्तु, आत्मदर्शन द्वारा कल्याण करने का प्रयास तो तुम्बे बाँधकर समुद्र को पार करने जैसा कठिन है।

“और, हम आत्मज्ञान की जो वार्ता करते हैं, उससे मात्र इतना ही प्रयोजन है कि, ‘यदि कोई अपनी आत्मा को देह से पृथक् माने, तो उसे देह से प्रीति न रहे, तथा देह के सम्बंधीजनों से भी स्नेह न रहे, तथा भगवान की भक्ति में कोई विघ्न भी उपस्थित न हो।’ इतना ही आत्मज्ञान की वार्ता करने का हमारा प्रयोजन है, परन्तु केवल आत्मज्ञान से ही कल्याण हो जाएगा, ऐसा तो कभी भी नहीं मानना।

“और, जगत में एक बात होती है कि, ‘मन होय चंगा तो कठौती में गंगा।’ परन्तु यह बात मिथ्या है। क्योंकि चाहे कैसा भी समाधिनिष्ठ अथवा विचारवान पुरुष हो, फिर भी वह स्त्रियों सहवास करने लगे, तो उसका धर्म किसी भी प्रकार से नहीं रह सकता। तथा चाहे कैसी ही धर्माचरणवाली स्त्री हो, उसका यदि परपुरुष के साथ सहवास हो जाए, तो उसका भी धर्म नहीं ही रहता। इस तरह स्त्री-पुरुष का परस्पर सहवास होने पर भी उनका धर्म रहे, ऐसी तो आशा ही नहीं रखनी चाहिए! यह बात सौ प्रतिशत सत्य ही है, इसमें किसी भी तरह का संशय नहीं रखना चाहिए।

“अतः धर्मपालन में कब सुदृढ़ रह सकते हैं? तो परमहंस तथा ब्रह्मचारी शास्त्रकथित ब्रह्मचर्यादि नियमों का पालन करते रहें, तभी वे धर्म में सुदृढ़ रह सकते हैं। स्त्रियाँ भी शास्त्रकथित अपने नियमों का पालन करती रहें, तो वे भी धर्मनिष्ठा में सुदृढ़ रह सकती हैं। अन्य सत्संगी गृहस्थ भी शास्त्रकथित अपने-अपने नियमों का पालन करते रहें और युवावस्थावाली अपनी माता, बहन और पुत्री के साथ भी एकान्तवास न करें तथा उनके सामने भी दृष्टि जमा कर न देंखे, तो वे धर्ममर्यादा में सुदृढ़ रह सकते हैं। इस प्रकार धर्मनिष्ठा रखना, भगवान के स्वरूप की उपासना करना, भगवान के अवतार-चरित्रों का श्रवण कीर्तन करना, तथा भगवान का नाम स्मरण करते रहना - ये चार बातें ही जीव के अतिशय कल्याण के लिए हैं।

“आप सब मुझे भगवान मानते हों, तो हमने जहाँ-जहाँ उत्सव किए हों, तथा जिस स्थान पर परमहंस, ब्रह्मचारी तथा हरिभक्त सत्संगी स्त्री-पुरुष इकट्ठे हुए हों, वहाँ हमने कीर्तन गान कराया हो, वार्ता कही हो और हमारी पूजा हुई हो आदि हमारी जो लीलाएँ हैं, उनका वर्णन करना, श्रवण करना तथा मन में उन्हीं चरित्रों का चिन्तन करते रहना। जिसको ऐसा चिन्तन अन्त समय पर हो गया, तो उसका जीव भगवान के धाम को अवश्य प्राप्त होगा। इसलिए हमारे ये सभी चरित्र, क्रिया एवं नामस्मरण कल्याणकारी हैं। इसी प्रकार, हमने स्वरूपानन्द स्वामी को बात कही थी। उन्होंने जब इस वार्ता को हृदयंगम किया, तब देहजन्य रोग का उनका भारी दुःख मिट गया और उन्हें परम शान्ति प्राप्त हुई। न कि वे आत्मा को देखते थे, उससे उनको शान्ति हुई। केवल आत्मज्ञान से तो उन्हें कोई सिद्धि प्राप्त नहीं हुई।

“अतः भगवान के श्रीकृष्ण एवं रामचन्द्रादि परोक्ष अवतारों के भी जिन चरित्रों का जहाँ-जहाँ वर्णन किया हो, उनका भी श्रवण तथा गान करते रहें। इस प्रकार पूर्वोक्त बातों की दृढ़ता बनाए रखने के लिए, हमने श्रीमद्भागवत आदि आठ ग्रन्थों का अतिशय प्रतिपादन किया है। इसलिए, इन ग्रन्थों का श्रवण तथा अध्ययन करना और उन चार बातों की पुष्टि के लिए दूसरों से वार्ता करते रहना।

“और, भगवान की मूर्ति की उपासना, भगवान के चरित्र-गान तथा भगवान के नामस्मरण के बिना केवल धर्म द्वारा कल्याण होने की बात तो तुम्बे को बाँधकर समुद्र को पार करने के समान कठिन है। जिसे भगवान की मूर्ति का आश्रय हो तथा जो भगवान के चरित्रों को गाता व सुनता हो और भगवान का नाम स्मरण करता हो, फिर भी यदि उसमें धर्मनिष्ठा न हो, तो उसे सिर पर पत्थर उठाकर समुद्र को तैरने की इच्छा रखनेवाला समझना, और उसे चांडाल-सा मानना। इसलिए उन चार बातों द्वारा ही जीव का कल्याण अवश्य हो जाता है। परन्तु उनके सिवाय ऐसा कोई अन्य साधन नहीं है, जिसके द्वारा जीवात्मा का कल्याण हो।

“हमें मुक्तानन्द स्वामी आदि साधुओं के काव्य एवं भजनों का गान एवं श्रवण करना चाहिए। अन्य (भक्त) कवियों द्वारा विरचित भगवान के चरित्र-युक्त भजन-कीर्तन तथा उनके सदृश जिस-जिसके भजन कीर्तन हों, उनका भी भजन-कीर्तन करें किन्तु कबीर और अखा जैसे कवियों की रचनाओं का न तो गान ही करना चाहिए और न उन्हें सुनना ही चाहिए।

“और, आप सबका मुझ पर विश्वास है, फिर भी यदि मैं सबको इधर-उधर के उलटे रास्ते पर चढ़ा दूँ, तो ऐसा ही होगा जैसे सबको कुएँ में ढकेलकर उसके ऊपर विशाल शिला को ढक देना! ऐसे समय में किसी के बाहर निकलने की आशा ही नहीं रह जाती! वैसे ही यदि आप भी मेरे वचनों का विश्वास करके उलटे मार्ग पर भटक जाएँ, तो इससे मेरा क्या भला होगा? अतः यह वार्ता आपके कल्याण के लिए मैंने आपको स्नेहपूर्वक बताई है, इसलिए आप सब अब इसी प्रकार समझकर अपनी दृढ़ता बनाए रखना।”

इतनी बात कहकर श्रीजीमहाराज पुनः बोले कि, “यदि आप सबने हमारी इस बात के अनुसार आचरण करने का निश्चय कर लिया हो, तो एक-एक करके मेरा चरणस्पर्श करते हुए शपथ लेकर यह प्रतिज्ञा करो कि हमें दृढ़ता के साथ ऐसा ही आचरण करना है।”

इसके पश्चात् समस्त परमहंस तथा सत्संगी प्रसन्नतापूर्वक उठे और श्रीजीमहाराज के चरणकमलों का स्पर्श तथा प्रणाम करके पुनः अपने-अपने स्थान पर बैठ गए। इसी तरह श्रीजीमहाराज ने सभी स्त्रियों से कहा तो उन्होंने दूर खड़े रहकर, इसी प्रकार आचरण करने का निश्चय करके शपथ ली। बाद में श्रीजीमहाराज प्रसन्नतापूर्वक अपने निवास स्थान पर पधारे।

॥ इति वचनामृतम् ॥ ३५ ॥ १६८ ॥

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