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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा मध्य ३६

अखंड वृत्ति के चार उपाय

संवत् १८८० में भाद्रपद शुक्ला पूर्णिमा (२० सितम्बर, १८२३) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में पश्चिमी द्वार के कमरे के बरामदे में पलंग पर विराजमान थे। उन्होंने श्वेत वस्त्र धारण किए थे। उनके समक्ष परमहंस तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

उस समय श्रीजीमहाराज बोले कि, “प्रश्नोत्तरी प्रारम्भ करें।”

तब मुक्तानन्द स्वामी ने प्रश्न किया कि, “भगवान के स्वरूप में अखंड वृत्ति बनाये रखने का क्या उपाय है?”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “उसके चार उपाय हैं। पहला तो यह उपाय है कि चित्त का आसक्त होने का स्वभाव है, उसे जहाँ लगाया जाए, वहाँ वह लग जाता है। जिस प्रकार चित्त पुत्र-कलत्रादि में लगा रहता है, वैसे ही परमेश्वर में भी उसे लगाना चाहिए। दूसरा उपाय है: अतिशय शूरवीरता। जिसके हृदय में शूरवीरता हो, उसको यदि भगवान के सिवा कोई अन्य संकल्प हो जाता है, तो उसके हृदय में तीव्र प्रतिक्रिया उत्पन्न हो जाती है। उस विचारमात्र से ही अपने सभी संकल्पों को मिटाकर वह अपनी वृत्ति को निरन्तर भगवान के स्वरूप में रखता है। तीसरा उपाय भय है। जिसके हृदय में जन्म, मृत्यु तथा नरक-चौरासी में भटकने का भीषण भय बना रहता है, वह उस डर के कारण भगवान के स्वरूप में अखंड वृत्ति रखता है। चौथा उपाय वैराग्य है। जो पुरुष वैराग्यवान होता है, वह सांख्यशास्त्र के ज्ञान द्वारा अपनी आत्मा को देह से भिन्न समझता है और उस आत्मा के सिवा अन्य समस्त मायिक पदार्थों को असत्य समझकर उस आत्मा में परमात्मा को धारण करके उनका अखंड चिन्तन करता है। इन चार उपायों के सिवा जिस पर भगवान की कृपा हो जाए, उसकी तो बात ही क्या कहें? परन्तु, इन चार के सिवा यदि कितने ही अन्य उपाय किए जाएँ, परन्तु भगवान में अखंड वृत्ति नहीं लगती!

“और, भगवान में अखंड वृत्ति रहे, यह बड़ा भारी काम है। जिसके भीतर अनेक जन्मों के सुकृतों (पुण्यों) का उदय हो चुका हो, उसी को भगवान के स्वरूप में अखंड वृत्ति बनी रहती है। अन्यथा दूसरे लोगों को तो ऐसी अखंड वृत्ति रखना महा दुर्लभ है।”

इस प्रकार भगवत्स्वरूप में वृत्ति बनाए रखने के उपाय बताकर श्रीजीमहाराज ने कहा कि, “इस संसार में जिसे माया कहते हैं, उस माया का स्वरूप हमने देख लिया है कि, ‘भगवान के सिवा अन्य स्थान पर जो स्नेह रहता है, वही माया है।’ इस जीव को अपने शरीर, शरीर के सगे-सम्बंधी जनों तथा शरीर के भरण-पोषण करनेवालों के प्रति जो स्नेह है, वह पंचविषयों में जीव का जैसा अपार स्नेह रहता है, उससे भी बढ़कर है। इसलिए देह, देह के सगे-सम्बंधियों और देह का भरण-पोषण करनेवाले में से जिसका स्नेह टूट गया, वह पुरुष भगवान की माया को पार कर चुका है।

“जिस पुरुष का भगवान के सिवा अन्य जनों से स्नेह टूट जाता है, उसको भगवान से स्नेह हो जाता है। भगवान में स्नेह रहने पर उस पुरुष की भगवान में अखंड वृत्ति रहती है। और जब भगवान में अखंड वृत्ति रहने लगती है, तब उसके लिए अन्य कोई भी काम करना बाक़ी नहीं रहता, वह कृतार्थ हो चुका होता है।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ३६ ॥ १६९ ॥

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