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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा प्रथम १७

सत्संग में कुसंग क्या है?

संवत् १८७६ में मार्गशीर्ष कृष्णा पंचमी (६ दिसम्बर, १८१९) को श्रीजीमहाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में पश्चिमी द्वार के बड़े कमरे में कथावाचन (श्रीमद्भागवत कथा) करवा रहे थे। उन्होंने सफ़ेद धोती धारण की थी, सफ़ेद चादर ओढ़ी थी, सफ़ेद पाग पहनी थी, पीले पुष्पों की माला धारण की थी और पीले पुष्पों का तुर्रा पाग में खोंसा था। वे अतिप्रसन्न मुद्रा में विराजमान थे।

उस समय श्रीजीमहाराज ने मुक्तानन्द स्वामी, गोपालानन्द स्वामी आदि साधुओं को बुलाया और उनसे कहा कि, “अपने सत्संग में थोड़ा-सा कुसंग का भाग रह जाता है, उसे आज दूर करना है और यह प्रकरण इस प्रकार चलाना है कि समस्त परमहंसों, सांख्ययोगिनियों (भगवान की भक्त ब्रह्मचारिणी विधवा स्त्रियों), कर्मयोगियों (गृहस्थ भक्तों) तथा अन्य सभी सत्संगियों में इस बात का प्रवर्तन हो जाए!

“सत्संग में कुसंग क्या है? तो बात करनेवाले उत्साहहीन होकर बिना हिम्मत की बातें किया करते हैं, वही सत्संग में कुसंग है। ऐसे लोग किस प्रकार की बातें करते हैं? तो वे कहते हैं कि, ‘भगवान के वचनों का यथार्थरूप में पालन कौन कर सकता है? व्रत-नियमों का यथार्थ पालन कौन कर सकता है? इसलिए जितना हो सके, उतना धर्म-पालन२६ करना चाहिए; क्योंकि भगवान तो अधमों के उद्धारक हैं, वे कल्याण तो करेंगे ही!’ तथा वे लोग ऐसी बातें भी कहते हैं कि, ‘भगवान के स्वरूप को हमें हृदय में धारण करना है, वह तो अपने किए कभी नहीं हो पाता! वह तो तभी संभव हो पाता है, जिस पर भगवान की दया होती है!’

“इस प्रकार की बिना हिम्मत की बातें करके वे भगवान की प्रसन्नता के साधन धर्म, ज्ञान, वैराग्य तथा भक्ति आदि से दूसरों को विमुख कर डालते हैं। इसलिए, आज से अपने सत्संग में कोई भी इस तरह की बलहीन बातें मत करें; सदा हिम्मत के साथ ही बात करियेगा। यदि कोई इस प्रकार बलहीन बात करे, तो उसे नपुंसक ही समझना और ऐसी बलहीन बातें हो जाएँ, उस दिन उपवास करना।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ १७ ॥

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This Vachanamrut took place ago.


२६. गृहस्थ एवं त्यागियों के लिए श्रीहरि ने शिक्षापत्री आदि ग्रंथों में कहे गए भक्तपोषक सदाचाररूप नियम धर्म।

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प्रकरण गढ़डा प्रथम (७८) सारंगपुर (१८) कारियाणी (१२) लोया (१८) पंचाळा (७) गढ़डा मध्य (६७) वरताल (२०) अमदावाद (३) गढ़डा अंत्य (३९) भूगोल-खगोल वचनामृतम् अधिक वचनामृत (११)

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