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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा मध्य ३७

स्वाभाविक प्रकृति

संवत् १८८० में भाद्रपद कृष्णा प्रतिपदा (२१ सितम्बर, १८२३) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में पश्चिमी द्वार के कमरे के बरामदे में विराजमान थे। उन्होंने श्वेत वस्त्र धारण किए थे। उनके समक्ष परमहंसों तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

उस समय श्रीजीमहाराज ने प्रश्न किया कि, “गीता में कहा गया है कि ज्ञानी भी अपनी प्रकृति के अनुसार आचरण करता है तथा शास्त्रों के द्वारा कहा हुआ निग्रह शिथिल हो जाता है। अतः निग्रह का ज़ोर नहीं चल पाता। ऐसी जो स्वाभाविक प्रकृति है, वह कौन-से उपाय द्वारा टल सकती है?

इस प्रश्न पर समस्त मुनिमंडल ने विचार किया, परन्तु उन्हें श्रीजीमहाराज के प्रश्न का समाधान करना संभव नहीं लगा।

तब श्रीजीमहाराज ने कहा कि, “इसका उत्तर इस प्रकार है कि उस स्वभाव से छुटकारा दिलाने के लिए सत्पुरुष जो उपदेश देते हों, उनके वचन में अतिशय विश्वास हो, उपदेशकर्ता पर श्रोताजनों की अत्यंत प्रीति हो, तथा उपदेश करनेवाले (सत्पुरुष) चाहे जितना कष्टदायक कितने ही कटु वचन कहे, तो भी उनको हितकारी ही मानता रहता हो तो मुमुक्षु की स्वाभाविक प्रकृति का भी नाश हो जाता है। परन्तु, इसके अलावा अन्य कोई उपाय नहीं है।

“इसलिए, जिसे अपनी प्रकृति को टालने की इच्छा हो, उसे परमेश्वर तथा सत्पुरुष उसके स्वभाव को टालने के लिए चाहे कितना ही तिरस्कार करें और चाहे कितने ही कटु वचन कहें, तो भी किसी प्रकार का दुःख नहीं मानना चाहिए, परन्तु उपदेश देनेवाले के गुणों का ही ग्रहण करना। यदि कोई इस प्रकार रहे, तो टालने में असंभव-सी प्रकृति का भी नाश हो जाता है।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ३७ ॥ १७० ॥

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