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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा मध्य ३८

मांचा भक्त की समझ

संवत् १८८० में भाद्रपद कृष्णा षष्ठी (२६ सितम्बर, १८२३) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में पूर्वी द्वार के कमरे के बरामदे में पलंग पर गद्दी-तकिया लगवाकर विराजमान थे। उन्होंने सभी श्वेत वस्त्र धारण किए थे। उनके समक्ष परमहंसों तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

उस समय श्रीजीमहाराज बोले कि, “संसारी जीव को कोई धन देनेवाला या पुत्र देनेवाला मिल जाए, तो उसमें तुरन्त प्रतीति आ जाती है, किन्तु भगवान के भक्त को जन्त्र-मन्त्र, नाटक-नौटंकी आदि किसी के भी प्रति रुचि नहीं होती। यदि हरिभक्त हो और वह जन्त्र-मन्त्र में प्रतीति रखता हो, तो उसे सत्संगी होने पर भी अर्ध विमुख ही समझना चाहिए।

“और, भगवान के जो सच्चे भक्त होते हैं, उनकी संख्या अधिक नहीं होती। भगवान के यथार्थ भक्त तो कारियाणी गाँव के मांचा भक्त थे। वे सत्संगी होने से पहले वामपंथी थे, फिर भी निष्काम व्रत (ब्रह्मचर्यपालन) में उनकी किसी भी प्रकार की चूक नहीं पड़ी थी। स्वयं बाल-ब्रह्मचारी रहे! एकबार एक कीमियागर उनके घर जाकर ठहरा था। उसने ताँबे से चाँदी बनाकर दिखाई। बाद में उसने माँचा भक्त से कहा कि, ‘आप सदाव्रती हैं, इसीलिए आपको यह जड़ी-बूटी दिखाकर चाँदी बनाना सिखा दूँ!’ तब माँचा भक्त ने लाठी लेकर उस किमियागर को गाँव के बाहर भगा दिया तथा उससे कहा कि, ‘हमें भगवान के सिवा किसी भी अन्य पदार्थ की इच्छा नहीं है।’ बाद में उन भक्त को जब सत्संग का अवसर प्राप्त हुआ, तब वे भगवान के एकांतिक भक्त बने।

“अतः जो एकान्तिक भक्त होता है, उसमें एक तो आत्मनिष्ठा होती है, दूसरा वैराग्य होता है, तीसरा स्व-धर्म पालन में दृढ़ता होती है तथा श्रीकृष्ण भगवान में अत्यन्त भक्ति होती है। ऐसे एकांतिक भक्त जब देह-त्याग करते हैं, तब श्रीकृष्ण भगवान में उनका प्रवेश हो जाता है, परन्तु एकांतिक भक्त हुए बिना श्रीकृष्ण वासुदेव में भक्त का प्रवेश नहीं होता।

“तथा जो एकांतकि भक्त नहीं होता उसका तो ब्रह्मादिक में प्रवेश होता है अथवा संकर्षणादिक में प्रवेश होता है परंतु बिना एकांतिक हुए श्रीकृष्ण वासुदेव में प्रवेश नहीं हो सकता। अब प्रवेश के सम्बंध में हमें इस प्रकार समझना है कि जैसे अतिशय लोभी का जैसे धन में प्रवेश होता है, अतिकामी पुरुष का अपनी चहेती स्त्री में प्रवेश होता है, तथा कोई अधिक संपत्तिवान हो परंतु पुत्रहीन हो, उसे यदि पुत्र प्राप्ति होगी तो उसका अपने पुत्र में प्रवेश होता है, उसी प्रकार जिसके साथ जीव का लगाव रहता है, उसी में उसका प्रवेश हो जाता है। इस प्रकार प्रवेश होने की बात को समझना चाहिए। परन्तु जैसे जल में जल और अग्नि में अग्नि मिल जाती है, उसी तरह परमात्मा में जीवों का प्रवेश नहीं होता। वस्तुतः जिसका जिसमें प्रवेश होता है, उसको उसके बिना अन्यत्र कहीं प्रीति नहीं रहती। उसी प्रकार जिसका अपने इष्टदेव में प्रवेश हो गया, उसको अपने इष्टदेव के सिवा अन्य किसी भी पदार्थ में स्नेह उत्पन्न नहीं होता। उसको तो एकमात्र उसी की रटना लगी रहती है। यदि वह उसके बिना जीवित रहता भी है, तो भी वह घोर दुःख की अनुभूति करते हुए जीवन बिताता है, उसे कहीं सुख की अनुभूति नहीं होती।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ३८ ॥ १७१ ॥

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