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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा मध्य ३९

श्रीहरि के स्वाभाविक गुण

संवत् १८८० में भाद्रपद कृष्णा दशमी (२९ सितम्बर, १८२३) को श्रीजीमहाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन से घोड़ी पर सवार होकर श्रीलक्ष्मीवाड़ी में पधारे थे। वहाँ वे वेदिका पर पलंग बिछवाकर उस पर विराजमान हुए। उन्होंने सभी श्वेत वस्त्र धारण किए थे। उनके समक्ष परमहंसों तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

तब श्रीजीमहाराज ने प्रश्न किया कि, “देश, काल, क्रिया और संगादि के कुप्रभाव से भी जो गुण कभी मिट न जाए, ऐसे स्वाभाविक गुण जिसमें भी हों, वह कहिए।”

इतना कहकर श्रीजीमहाराज बोले कि, “पहले हम अपने ही ऐसे स्वाभाविक गुणों की बात कहते हैं। एक तो हम उस प्रकार बर्ताव रखते हैं कि पाँच प्रकार के विषयों से सम्बंधित जो-जो पदार्थ हैं, उनका देह से चाहे कितना ही संसर्ग हो, फिर भी हमारे मन में उनका संकल्प तक नहीं उठता तथा वे पदार्थ स्वप्न में भी दिखाई नहीं पड़ते। दूसरी बात यह है कि बाह्यरूप से हम चाहे कितनी ही प्रवृत्तियों में क्यों न रहें, परन्तु जब अन्तर्दृष्टि द्वारा हम अपनी आत्मा की ओर देखते हैं, तब कछुवे के अंगों की तरह समस्त वृत्तियाँ संकुचित होकर आत्मस्वरूप को प्राप्त कर लेती हैं, जिससे परम आनन्द होता रहता है। तीसरी बात यह है कि भगवान का चैतन्यरूप-तेजोमय अक्षरधाम में सदा साकारमूर्ति श्रीकृष्ण वासुदेव विराजमान रहते हैं और साकाररूप से ही वे सबके कर्ता हैं, परन्तु निराकार से कुछ नहीं होता। इस प्रकार भगवान के साकार स्वरूप की हमें दृढ़ प्रतीति रहती है। हालाँकि हमने (शुष्क) वेदान्त के कितने ही ग्रन्थ पढ़े और सुने हैं, परन्तु भगवान के साकार स्वरूप की प्रतीति कभी नष्ट नहीं हुई! चौथी बात यह है कि जिस किसी स्त्री तथा पुरुष के सम्बंध में हमें यह ज्ञात हो जाए कि, ‘यह तो ऊपर-ऊपर से, केवल दम्भ से भगवान की भक्ति करता है, परन्तु वह भगवान का सच्चा भक्त नहीं है,’ तो उसे देखकर न तो हमारा मन प्रसन्न होता है, न उसके साथ हमारी जमती है! परन्तु जो भगवान का सच्चा भक्त होता है, उसे देखकर तो मन प्रसन्न होता है और उसी के साथ हमें आनन्द भी मिलता है। ये चार गुण हम में स्वाभाविक रूप से रहते हैं, जिनकी बात हमने आपको बताई। अब आप सब अपने-अपने स्वाभाविक गुण बताइए।”

तब बड़े-बड़े परमहंसों तथा महान हरिभक्तों ने अपने हृदय में जैसे-जैसे गुण विद्यमान थे, उनकी जानकारी दी।

बाद में श्रीजीमहाराज बोले कि, “साधुओं में जो अग्रणी हैं, उनमें निष्काम रूप धर्म की दृढ़ता अवश्य रहनी चाहिए। कदाचित् दूसरी बातों में कोई शिथिलता रह जाए, तो वह निभ सकता है, किन्तु निष्काम व्रत-ब्रह्मचर्य व्रत की तो पूर्णतः दृढ़ता रहनी चाहिए, क्योंकि वे बड़े सन्त हैं। उनकी महत्ता से ही सबकी महत्ता पहचानी जाती है।”

इस प्रकार वार्ता करने के पश्चात् श्रीजीमहाराज पुनः दादाखाचर के राजभवन में पधारे। वहाँ संध्या-आरती, नारायणधुन और स्तुति के बाद समस्त साधुओं तथा हरिभक्तों की सभा हुई।

उस समय श्रीजीमहाराज ने बड़े-बड़े परमहंसों से पूछा कि, “हमने श्रीमद्भागवत के पंचम स्कन्ध तथा दशम स्कन्ध का अतिशय प्रतिपादन किया है। आपको इन दोनों स्कन्धों का रहस्य जिस प्रकार समझ में आया हो उसे बताइए।”

तब सभी बड़े परमहंसों ने अपनी-अपनी समझ के अनुसार कह सुनाया।

तत्पश्चात् श्रीजीमहाराज बोले कि, “अब मैं आपको वह बतलाता हूँ, जिसे सुनकर चाहे कैसा भी शास्त्री, पुराणी, अथवा बुद्धिमान हो, निश्चित रूप से सत्य मानकर अपनी सहमति प्रकट करेगा। तथा उसे किसी प्रकार का संशय नहीं रहेगा कि, ‘यह वार्ता ऐसी नहीं होगी।’ इस प्रकार बात को स्पष्ट बताना, उसी का नाम रहस्य कहलाता है।

“इन दोनों स्कन्धों में दशम स्कन्ध का रहस्य यह है कि उपनिषद्, वेदान्त, श्रुतियों और स्मृतियों में जिनको ब्रह्म कहा है, ज्योतिः स्वरूप कहा है, ज्ञानरूप कहा है, तत्त्व कहा है, सूक्ष्म कहा है तथा निरंजन, क्षेत्रज्ञ, सर्वकारण, परब्रह्म, पुरुषोत्तम, वासुदेव, विष्णु, नारायण और निर्गुण इत्यादि नामों से जिन्हें परोक्षभाव से बताया गया है, वे ही प्रत्यक्ष वसुदेव के पुत्र श्रीकृष्ण वासुदेव हैं। इस प्रकार जहाँ-जहाँ स्तुति-भाग है, वहाँ-वहाँ ऐसे ही स्तुतिशब्दों को लेकर प्रत्यक्ष श्रीकृष्ण भगवान का ही वर्णन किया गया है, परन्तु श्रीकृष्ण भगवान से अधिक और कुछ भी नहीं कहा गया; तथा समस्त जगत की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय के कर्ता भी श्रीकृष्ण भगवान ही हैं, यह भी कहा गया है।

“और, पंचम स्कन्ध में श्रीकृष्ण भगवान का माहात्म्य कहा गया है और बताया है कि श्रीकृष्ण भगवान ही इस जगत की स्थिति के लिए तथा अपने भक्तजनों को आनन्द देने के लिए अनेक प्रकार के रूपों को धारण करके खंड-खंड में रहते हैं। जो भक्त भगवान श्रीकृष्ण द्वारा प्रतिपादित मर्यादा का पालन करते हैं, वे अतिशय महत्ता को प्राप्त कर लेते हैं; किन्तु जो मनुष्य उन मर्यादाओं का पालन नहीं करते, वे बड़े होने पर भी अपनी स्थिति से गिर जाते हैं। और जो साधारण जीव हो, वह यदि उस मर्यादा का लोप कर दे, तो उसकी अधोगति होती है, ऐसा कहा गया है। वे ही श्रीकृष्ण वासुदेव ने वसुदेव तथा देवकी को प्रत्यक्ष चतुर्भुज रूप में अद्‌भुत बालक बनकर दर्शन दिए थे। वह अनादि वासुदेवरूप श्रीकृष्ण भगवान ने धर्म, अर्थ और काम में प्रवृत्त होकर जो-जो चरित्र किए, उन चरित्रों का गान अथवा श्रवण करनेवाले सभी जीव समस्त पापों से मुक्त होकर परमपद को प्राप्त कर लेते हैं। उन वासुदेव भगवान के जन्म, कर्म और मूर्ति सब कुछ दिव्यस्वरूप हैं, और वे वासुदेव श्रीकृष्ण ही सर्वोपरि भगवान हैं। इस प्रकार इन दोनों स्कन्धों का रहस्य बताया।

“जो शुकजी जैसी ब्रह्मस्थिति को प्राप्त हुए हों, उन्हें भी उन श्रीकृष्ण परब्रह्म की उपासना तथा भक्ति करनी चाहिए और दशम स्कन्ध में वर्णित श्रीकृष्ण भगवान के चरित्रों का गान और श्रवण शुकजी जैसे महर्षि को भी करना चाहिए। शुकजी ने ही यह बात कही है:

‘परिनिष्ठितोऽपि नैर्गुण्य उत्तमश्लोकलीलया।
गृहीतचेता राजर्षे आख्यानं यदधीतवान् ॥’२४१

“ऐसे वासुदेव भगवान के आकार में दृढ़ विश्वास रखना चाहिए। यदि भगवान के साकार रूप में दृढ़ विश्वास होगा तो मनुष्य ने कदाचित् कुछ पाप भी कर लिया हो, परन्तु उसका उद्धार ही होगा। क्योंकि अन्य पापों का प्रायश्चित्त तो बताया गया है, किन्तु भगवान को निराकार समझेगा, तो वह पाप तो पंचमहापापों की अपेक्षा भी बहुत बड़ा पाप है। इस पाप का तो कोई प्रायश्चित्त ही नहीं है। और, यदि भगवान को साकार मानकर निष्ठा रखी हो, तो कदाचित् साधक से कुछ पाप हो गया, तो उसमें डरने की क्या बात है? वह पाप भगवान के प्रताप से भस्मीभूत हो जाएगा और मुमुक्षु भगवान को प्राप्त करेगा। अतः हमारी आप सबको आज्ञा हैं कि भगवान सर्वदा साकार है, ऐसी दृढ़ प्रतीति रखकर दृढ़तापूर्वक उनकी उपासना करें और इस वार्ता को सुदृढ़ बनाए रखें।”

इस प्रकार श्रीजीमहाराज सबसे उपदेशवचन कहकर भोजन के लिए पधारे।

॥ इति वचनामृतम् ॥ ३९ ॥ १७२ ॥

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२४१. अर्थ के लिए देखिए वचनामृत पंचाला २ की पादटीप।

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प्रकरण गढ़डा प्रथम (७८) सारंगपुर (१८) कारियाणी (१२) लोया (१८) पंचाळा (७) गढ़डा मध्य (६७) वरताल (२०) अमदावाद (३) गढ़डा अंत्य (३९) भूगोल-खगोल वचनामृतम् अधिक वचनामृत (११)

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