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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा मध्य ४०

एक दंडवत् प्रणाम अधिक

संवत् १८८० में आश्विन कृष्णा तृतीया (२२ अक्तूबर, १८२३) को श्रीजीमहाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में अपने निवास स्थान में स्नान करके श्वेत वस्त्र धारण करके अपने आसन पर विराजमान हुए। फिर देव-अर्चनादि अपने नित्यकर्म को सम्पन्न करके उन्होंने उत्तराभिमुख होकर श्रीकृष्ण भगवान को साष्टांग दंडवत् प्रणाम किया। परन्तु वे प्रतिदिन जितने दंडवत् प्रणाम किया करते थे उसकी अपेक्षा उस दिन उन्होंने एक दंडवत् प्रणाम अधिक किया। यह देखकर शुकमुनि ने पूछा कि, “हे महाराज! आज आपने एक दंडवत् प्रणाम अधिक क्यों किया?”

यह सुनकर श्रीजीमहाराज कहने लगे कि, “प्रतिदिन तो हम श्रीकृष्ण भगवान को प्रणाम करके यह निवेदन करते थे कि, ‘हे महाराज! इस देहादि में यदि हमारे अहं-ममत्व-भाव रहे हों, तो आप उसे मिटा देना।’ किन्तु, आज हमें ऐसा विचार हुआ कि, ‘यदि भगवान के भक्त के प्रति मन, वचन तथा देह द्वारा जाने-अनजाने में कोई द्रोह हो जाए, इससे जीव को जैसा दुःख होता है, वैसा दुःख किसी अन्य पाप से नहीं होता।’ इसलिए, जाने-अनजाने मन, वचन एवं देह द्वारा भगवान के भक्त के प्रति यदि कोई द्रोह हो गया हो, तो उसके दोष का निवारण करने के लिए ही हमने एक दंडवत् प्रणाम अधिक किया।

“वास्तव में हम ऐसा मानते हैं कि भगवान के भक्त का द्रोह करने से इस मनुष्य का जैसा बुरा होता है और उसे जितना कष्ट सहन करना पड़ता है, वैसा सन्ताप किसी अन्य पाप द्वारा नहीं होता; और मन, वचन तथा शरीर द्वारा भगवान के भक्त की कोई सेवा हो गई, तो इस जीवात्मा का जैसा भला होता है और उसे जितना सुख मिलता है, वैसी सुखानुभूति उसे अन्य किसी साधन द्वारा नहीं होती। और, भगवान के उस भक्त का द्रोह तो वस्तुतः लोभ, मान, ईर्ष्या और क्रोध इन चार दोषों के कारण हुआ करता है। और भगवद्भक्त का सम्मान होता है, उसमें इन चार दोषों के नहीं रहने से ही होता है! अतः जिसे इस शरीर के रहते हुए या अपनी मृत्यु के बाद भी परम सुखी होना है, उसे मन, वचन और देह से भगवान के भक्त का द्रोह नहीं करना चाहिए।

“यदि भगवान के भक्त का कुछ द्रोह हो गया, तो वाणी द्वारा उसकी प्रार्थना करना तथा भूमिसात् होकर पूरे मन से उसे दंडवत् प्रणाम करना तथा पुनः उसका द्रोह न हो जाए, इस बात का सदैव ध्यान रखना। परन्तु द्रोह करके फिर दंडवत् प्रणाम करे और फिर द्रोह करने लगे तथा दंडवत् प्रणाम भी करता रहे, ऐसा कभी मत बरतना! यह बात सभी को प्रतिदिन स्मरण में आती रहे, इसलिए सभी संत तथा हरिभक्त यह नियम अवश्य रखें कि भगवान की पूजा के बाद अपने नित्य नियम में जितने दण्डवत् प्रणाम करते हों, उसे अवश्य करना, परन्तु दिनभर में जाने-अनजाने मन, वचन और देह द्वारा भगवान के भक्त का द्रोह हुआ हो, उसका निवारण करने के लिए प्रतिदिन एक दंडवत् प्रणाम अधिक करना। यह हमारी आज्ञा है, सभी उसका पालन अवश्य करें।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ४० ॥ १७३ ॥

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