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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा मध्य ४१

अहंकार-रहित सेवा

संवत् १८८० में कार्तिक कृष्णा एकादशी (२८ नवम्बर, १८२३) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में पश्चिमी द्वार के कमरे के बरामदे में पलंगपर विराजमान थे। उन्होंने श्वेत वस्त्र धारण किए थे, कंठ में पीले पुष्पों के हार पहने थे और पाग में पीले पुष्पों के तुर्रे लगाये थे। उनके समक्ष मुनियों तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

उस समय श्रीजीमहाराज अपने भक्तजनों को उपदेश देते हुए बोले कि, “जिसे परमेश्वर को भजना हो, उसे यदि भगवान अथवा भगवान के भक्त की सेवा-चाकरी करने का अवसर मिले, तो अपना बड़ा भाग्य मानकर सेवा करनी चाहिए। वह सेवा भी भगवान की प्रसन्नता के हेतु एवं अपने आत्मकल्याण के लिए भक्तिपूर्वक करनी चाहिए, किन्तु कोई अपनी प्रशंसा करे, ऐसी आशा से सेवा नहीं करनी चाहिए। और, मनुष्य का ऐसा स्वभाव है कि जिसमें स्वयं को मान मिले, वही करना अच्छा लगता है। बिना मान (अहंकार) के भगवान की अकेली भक्ति करना भी अच्छा नहीं लगता। जैसे श्वान सूखी हड्डी को एकान्त में ले जाकर उसे दाँतों से चबाता है। उससे उसका मुँह छिल जाता है और उस खून से सनी हुई हड्डी को चाटकर वह प्रसन्न होता है, परन्तु वह मूर्ख यह नहीं जानता कि, ‘यह तो मेरे ही मुँह का खून है, जिसमें मैं स्वाद मानता हूँ।’ वैसे ही भगवान का भक्त हो, फिर भी वह मानरूपी हड्डी को छोड़ नहीं पाता। वास्तव में वह जो भी साधनाएँ करता है, वह मान के वश में होकर ही करता है। केवल भगवान की भक्ति मानकर भगवान की प्रसन्नता के लिए वह ऐसा नहीं करता। यदि वह भगवान की भक्ति करता है, और उसमें भी जब उसे मान का स्वाद आता है तभी करता है, परन्तु केवल भगवान की प्रसन्नता के लिए नहीं करता। वास्तव में निर्मानभाव से एकमात्र भगवान की प्रसन्नता के लिए भगवान की भक्ति तो रतनजी और मियांजी जैसे कोई विरले पुरुष ही करते होंगे, लेकिन दूसरों से मानरूपी स्वाद का त्याग हो ही नहीं सकता।”

इस पर मुक्तानंद स्वामी ने तुलसीदास की यह साखी कही:

‘कनक तज्यो कामिनी तज्यो, तज्यो धातु को संग।
तुलसी लघु भोजन करी, जिए मान के रंग॥’

यह साखी सुनकर श्रीजीमहाराज बोले कि, “जीवात्मा को मान में से जैसा स्वाद आता है, वैसा तो उसे अन्य किसी पदार्थ से नहीं आता। इसलिए, जो मनुष्य मान का परित्याग करके भगवान का भजन करता है, उसे समस्त हरिभक्तों में अतिशय महान हरिभक्त समझना चाहिए।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ४१ ॥ १७४ ॥

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