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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा मध्य ४२

अक्षरधाम; मोक्ष की कुंजी

संवत् १८८० में मार्गशीर्ष कृष्णा द्वादशी (२९ दिसम्बर, १८२३) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में पूर्वी द्वार के कमरे के बरामदे में विराजमान थे। उन्होंने श्वेत वस्त्र धारण किए थे। उनके समक्ष मुनि तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

उस समय भगवदानन्द स्वामी ने श्रीजीमहाराज से प्रश्न पूछा कि, “हे महाराज, भगवान के एक-एक रोम में अनन्तकोटि ब्रह्मांड किस प्रकार रहते हैं तथा ब्रह्मांड के कौन-कौन से स्थान में भगवान के अवतार होते हैं?”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “पुरुषोत्तम भगवान के अक्षरधाम के दो भेद हैं। इनमें एक सगुणभाव तथा दूसरा निर्गुणभाव! और पुरुषोत्तम नारायण को न तो सगुण ही कहा जा सकता है और न निर्गुण ही। वास्तव में सगुण-निर्गुण भेद तो अक्षर में है। वह अक्षर निर्गुण स्वरूप द्वारा अणु से भी अति सूक्ष्म है तथा सगुण स्वरूप से वह जितने भी बड़े पदार्थ हैं, उनसे भी अतिशय विराट है। उस अक्षर के एक-एक रोम में अणु की तरह अनन्त कोटि ब्रह्मांड रहते हैं। ऐसी स्थिति में ब्रह्मांड छोटे-छोटे नहीं हो जाते, वे तो अष्टावरण सहित ही हैं, परन्तु अक्षर की अतिशय महत्ता के आगे ऐसे ब्रह्मांड भी एकदम छोटे दिखाई पड़ते हैं। जैसे गिरनार पर्वत मेरु के आगे अत्यन्त लघु दिखता है, तथा लोकालोक पर्वत के आगे मेरु पर्वत बिल्कुल छोटा दिखाई पड़ता है, वैसे ही ब्रह्मांड उतने ही बड़े रहते हैं परन्तु अक्षर की अतिशय महत्ता के आगे वे बिल्कुल छोटे दिखाई पड़ते हैं; इसी कारण उन्हें ‘अणु-सदृश’ कहा जाता है। और, अक्षरब्रह्म सूर्यमंडल के समान है। जैसे सूर्य जब क्षितिज के ऊपर आता है, तब सूर्य के योग से दसों दिशाओं की पहचान हो जाती है। वैसे ही अक्षरधाम है। उस अक्षर के ऊपर-नीचे चारों ओर सभी दिशाओं में ब्रह्मांडों की श्रृंखलाएँ लगी हैं।

“और, उस अक्षरधाम में भगवान पुरुषोत्तम सदैव विराजमान रहते हैं। वे सत्यसंकल्प हैं तथा अक्षरधाम में रहते हुए ही जिस ब्रह्मांड में जिन-जिन रूपों से प्रकट होने की आवश्यकता रहती है, वे उन-उन रूपों को प्रकट करते हैं। जैसे श्रीकृष्ण भगवान ने रासक्रीड़ा की, तब यद्यपि वे स्वयं एक ही थे, फिर भी उस समय जितनी गोपांगनाएँ उपस्थित थीं, उनके सामने उनके उतने ही रूप हो गए थे। उसी प्रकार, पुरुषोत्तम भगवान को ब्रह्मांड-ब्रह्मांड में जहाँ-जहाँ जैसा रूप प्रकट करना होता है, वहाँ-वहाँ वे वैसे ही रूप को प्रकट करते हैं। वे स्वयं सदैव अक्षरधाम में रहते हैं और वही अक्षरधाम का मध्यभाग है, जहाँ उन पुरुषोत्तम की मूर्ति है।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ४२ ॥ १७५ ॥

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