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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा मध्य ४३

ब्रह्मस्वरूपिणी प्रीति

संवत् १८८० में पौष शुक्ला चतुर्थी (५ जनवरी, १८२४) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में अयोध्यावासियों के घर पर गद्दी-तकिये पर विराजमान थे। उन्होंने सभी श्वेत वस्त्र धारण किए थे। उनके समक्ष मुनियों तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी और प्रेमानन्द स्वामी सरोद लेकर कीर्तन कर रहे थे।

कीर्तन होने के बाद श्रीजीमहाराज बोले कि, “अब प्रश्नोत्तरी प्रारम्भ करें।”

ऐसा कहकर श्रीजीमहाराज ने पूछा कि, “भगवान का जो गुणातीत भक्त हो और केवल आत्मसत्तारूप में ही रहता हो, उसमें वैराग्यरूप सत्त्वगुण, विषयों में प्रीतिरूप रजोगुण तथा मूढ़तारूप तमोगुण के भाव नहीं रहते। वास्तव में वह केवल संकल्परहित शून्य-समता को धारण कर सुषुप्ति जैसी अवस्था में रहे, इस प्रकार सत्तारूप में रहनेवाले निर्गुण भक्त को भगवान में प्रीति होती है या नहीं?”

तब मुक्तानन्द स्वामी ने कहा कि, “जो सत्तारूप रहता है, उसको भगवान में प्रीति तो होती है।”

फिर श्रीजीमहाराज ने पूछा, “सत्तारूप में रहनेवाले भक्त को भगवान में जो प्रीति रहती है, वह आत्मा से सजातीय है अथवा विजातीय है?”

तब मुक्तानन्द स्वामी ने कहा कि, “वह प्रीति आत्मा की सजातीय है?”

यह सुनकर श्रीजीमहाराज बोले कि, “मध्वाचार्य, निम्बार्क तथा वल्लभाचार्य ने यह बताया है कि आत्मरूप रहकर भगवान में जो प्रीति की जाती है, वह प्रीति ब्रह्मस्वरूपिणी प्रीति कही गई है। इसलिए, जो भक्त गुणातीत होकर भगवान में प्रीति रखता है वही ब्रह्मस्वरूप है, वही बड़े-बड़े आचार्यों का यही सिद्धान्त है।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ४३ ॥ १७६ ॥

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