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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा मध्य ४४

दैवी-आसुरी जीव

संवत् १८८० में पौष शुक्ला अष्टमी (९ जनवरी, १८२४) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में पूर्वी द्वार के कमरे के बरामदे में विराजमान थे। उन्होंने श्वेत वस्त्र धारण किए थे। तथा उनके समक्ष मुनियों तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

उस समय श्रीजीमहाराज ने मुक्तानन्द स्वामी से पूछा कि, “जब किसी को हरिभक्त में कोई अवगुण दिखता है, तब उसे, उसमें पहले जितने दोष दिखाई पड़ते थे, उतने ही दिखाई पड़ते हैं या उनसे अधिक दिखाई पड़ते हैं?”

तब मुक्तानन्द स्वामी ने बताया कि, “अनुमान से यही प्रतीत होता है कि पहले जितने दोष दिखाई पड़ते थे, उतने ही दोष बाद में भी दिखाई पड़ते हैं।”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “इस बात पर आपकी दृष्टि नहीं पहुँच पाई। यदि उतने के उतने ही दोष दिखते हों, तो यह कैसे कहा जा सकता है कि, ‘उसे किसी का अवगुण आ गया?’ वास्तव में अशुभ देश, काल, क्रिया तथा संग आदि के योग द्वारा बुद्धि विकृत हो जाती है, इसी कारण अवगुण अधिक दिखाई पड़ते हैं। ऐसे समय पर इस प्रकार समझना चाहिए कि, ‘बुद्धि में अशुभ देशकालादि का दूषण लगा है।’

“और, हम तो ऐसा मानते हैं कि, ‘जिस पुरुष को पहले सत्पुरुष का संग रहा होगा अथवा भगवान का दर्शन हुआ होगा, उसको अन्य हरिभक्त का दोष दिखता ही नहीं, बल्कि अपना ही अवगुण प्रतीत होता है।’ जिसके ऐसे लक्षण हों, उसे दैवी जीव समझना। और जो आसुरी जीव होता है, उसको अपने में एक भी अवगुण नहीं दिखाई पड़ता, वह अन्य हरिभक्तों में केवल अवगुण ही देखता रहता है। जिसकी ऐसी बुद्धि हो, उसको आसुरी जीव समझना चाहिए। ऐसा आसुरी जीव भले ही सत्संग में रहता हो या सन्तों के मंडल में रहता हो, परन्तु वह कालनेमि एवं रावण तथा राहु के सदृश रहता है, किन्तु उसे सन्त की संगति छूती तक नहीं! इसलिए, जो परिपक्व हरिभक्त होते हैं, उनको तो अपने में ही अवगुण दिखाई पड़ते हैं। वह दूसरों के दोष कभी नहीं देखते।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ४४ ॥ १७७ ॥

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