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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा मध्य ४५

एकावन प्रकार के मायिक बन्धनों से रहित होना

संवत् १८८० में पौष कृष्णा प्रतिपदा (१७ जनवरी, १८२४) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में पूर्वी द्वार के कमरे के बरामदे में विराजमान थे। उन्होंने श्वेत वस्त्र धारण किए थे। उनके समक्ष मुनियों तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

उस समय श्रीजीमहाराज बोले कि, “समस्त मुनिमंडल, ब्रह्मचारी, गृहस्थ सत्संगी, पार्षद तथा अयोध्यावासी, आप सभी मेरे आत्मीयजन कहलाते हों, इसलिए, यदि मैं सावधानी रखकर आपको सन्मार्ग पर न चला सकूँ और आप भी अपने आचरण में कुछ लापरवाह रहें तो वह हमसे देखा नहीं जाएगा। इसलिए, जो-जो पुरुष मेरे आत्मीयजन कहलाते हैं, उनमें मैं एक तिलमात्र तक कसर नहीं रहने दूँगा। अतः आप भी अत्यंत सावधान रहना। यदि आपने तनिक भी असावधानी रखी, तो सत्संग में आपके पाँव नहीं टिकेंगे। और मेरी तो ऐसी भावना है कि मुझे तो आप जैसे भगवान के भक्तों के हृदय में किसी भी प्रकार की वासना और किसी भी तरह का अनुचित स्वभाव नहीं रहने देना है। तथा माया के तीन गुण, दस इन्द्रियाँ, दस प्राण, चार अन्तःकरण, पंचभूत, पंचविषय तथा चौदह इन्द्रियों के देवता आदि में से किसी का भी संग नहीं रहने देना है। इन सभी मायिक उपाधि से रहित, एवं सत्तामात्र जो आत्मा है, उस आत्मस्वरूप बनकर आप भगवद्भक्ति करें, ऐसे विशुद्ध आप सभी को बनाना है, परन्तु किसी प्रकार माया का कोई दोष आपमें नहीं रहने देना है।

“और, यदि इस जन्म में हर कमी दूर नहीं हुई, तो बदरिकाश्रम में जाकर तप करके समग्र वासना को जलाकर भस्म करना है अथवा श्वेतद्वीप में जाकर निरन्नमुक्तों के साथ तपस्या करके समूची वासना को जलाकर भस्म कर डालना है। परन्तु, भगवान के सिवा किसी भी अन्य पदार्थों में प्रीति बनी रहे, ऐसा आपको नहीं रहने देना है। इसीलिए, समस्त हरिभक्त तथा मुनिमंडल सावधान रहें।”

इतनी वार्ता कहने के पश्चात् श्रीजीमहाराज अपने निवास स्थान में पधारे।

फिर उसी दिन सायंकाल को श्रीजीमहाराज पुनः सभा में विराजमान हुए। जब आरती हो चुकी तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “जीव सात्त्विक कर्म करके देवलोक में जाते हैं। राजस कर्म करके मनुष्य लोक की प्राप्ति होती है तथा तामस कर्म करनेवाले को अधोगति प्राप्त होती है। इस सम्बंध में यदि कोई शंका करे कि, ‘राजस कर्म करने से जब मनुष्यलोक की प्राप्ति होती है, तब तो समस्त मनुष्यों को एकसमान सुख-दुःख होने चाहिए।’ इस शंका का उत्तर यह है कि केवल एक रजोगुण के ही विभिन्न देश-कालादि के कारण अनेक प्रकार के भेद होते हैं; अतः राजस कर्म की एकसमान निश्चितता नहीं रह पाती, क्योंकि जैसे देश, काल, संग और क्रिया का योग होता है, उसी के अनुसार उसके कर्म हुआ करते हैं। उनमें भी यदि कुछ ऐसा कर्म हो जाए, जिससे भगवान के भक्त, सन्त तथा भगवान के अवतार अप्रसन्न हो जाएँ, तो वह इसी देह से मृत्युलोक में ही यमपुरी जैसे दुःख को भोगता है। परन्तु यदि जीव ऐसा कर्म करे कि जिससे भगवान तथा भगवान के भक्त प्रसन्न हों, तो वह इसी देह से परमपद को प्राप्त होने जैसा आनन्द भोगता है। और, यदि उसने भगवान तथा भगवान के सन्त को अप्रसन्न किया, तो वह चाहे स्वर्ग में जाने योग्य कर्म क्यों न किया हो, किन्तु उसका नाश हो जाता है और उसे नरक में गिरना पड़ता है; यदि उसने भगवान तथा भगवान के सन्त प्रसन्न हों ऐसा कुछ कर्म कर दिया, तो उसका नरक में जाने योग्य प्रारब्ध हो, फिर भी उसके अशुभ कर्मों का नाश हो जाता है और वह परमपद को प्राप्त कर लेता है।

“इसलिए, ज्ञानी पुरुष वैसा ही आचरण करें, जिससे भगवान और भगवान के भक्त प्रसन्न हो जाएँ। और अपने सम्बंधी जनों को भी यही उपदेश देना कि, ‘हमें वही आचरण करना है कि जिससे भगवान तथा भगवान के भक्त हम पर प्रसन्न हों और हम पर उनकी कृपा बनी रहे।’ जब अग्नि ने भगवान तथा भगवान के सन्त को प्रसन्न किया होगा, तभी अग्नि को ऐसा प्रकाश प्राप्त हुआ है; और, सूर्य-चन्द्रादि भी इतने प्रकाशमान हैं, उन्होंने भी शुभ कर्म द्वारा भगवान तथा भगवान के सन्त को प्रसन्न किया होगा, तभी उन्हें ऐसा प्रकाश प्राप्त हुआ है। तथा देवलोक एवं मृत्युलोक में जो भी सुखी जीव हैं, उन सभी ने निश्चय ही भगवान तथा भगवान के सन्त को प्रसन्न किया होगा, तभी वे उस प्रताप से सुखी बने हुए हैं। अतः जो पुरुष अपनी आत्मा का कल्याण करना चाहता हो, उसको सद्ग्रन्थों में बताए गए स्वधर्म में रत रहकर भगवान तथा भगवान के सन्त प्रसन्न हों, ऐसे ही उपाय करने चाहिए।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ४५ ॥ १७८ ॥

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