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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा प्रथम १८

पंचविषयों का खण्डन, हवेली का दृष्टांत

संवत् १८७६ में मार्गशीर्ष कृष्णा षष्ठी (८ दिसम्बर, १८१९) को रात एक पहर शेष थी, तब स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में पश्चिमी द्वार के कमरे में बरामदे के आगे चौक में पलंग पर विराजमान थे और श्वेत वस्त्र धारण किए हुए थे।

तब उन्होंने परमहंसों तथा सत्संगियों को बुलाया। फिर बहुत देर तक विचारमग्न बैठे रहने के पश्चात् वे बोले कि, “एक बात कहता हूँ, उसे सुनिये। मेरे मन में ऐसा विचार आता है कि यह बात न कहूँ, किन्तु आप हमारे हैं, इसलिए ऐसा होता है कि मैं आप से वह बात अवश्य बता दूं। इस बात को समझकर उसी के अनुसार वर्तन करनेवाला ही ‘मुक्त’ होता है; और इसके बिना तो चार वेदों, छः शास्त्रों,२७ अठारह पुराणों२८ तथा भारतादि (महाभारत, रामायण आदि) इतिहासों का अध्ययन करके, तथा उन शास्त्रों के अर्थों को समझ के अथवा उनका श्रवण करके भी कोई ‘मुक्त’ नहीं हो पाता। वही बात कहता हूँ, उसे सुनिये:

“बाहर चाहे कितना ही मायिक पदार्थों का संयोग क्यों न हो, फिर भी अगर मन में उसका संकल्प न हों तो हमें कोई सन्ताप नहीं है। परन्तु अन्तःकरण में यदि पदार्थों का लेशमात्र भी संकल्प हो गया, तो उस पदार्थ का त्याग कर दें, तभी हमें शान्ति होती है, ऐसा हमारा स्वभाव है। इसलिए हमने हृदय में विचार किया कि भगवान के भक्त के हृदय में विक्षेप उत्पन्न होता है, उसका क्या कारण है? फिर हमने मन, बुद्धि, चित्त तथा अहंकार पर दृष्टिपात किया, परन्तु हमें लगा कि अन्तःकरण तो उद्वेग का कारण नहीं है। वहाँ तो भगवान के स्वरूप के निश्चय का बल रहने के कारण अथवा आत्मज्ञान के बल के कारण अंतःकरण में ऐसी लापरवाही रहती है कि, ‘हमें तो भगवान मिल गए हैं, अतः अब कोई साधना करनी शेष नहीं रही!’ ऐसी गफलत रहती है, इतना ही अन्तःकरण का दोष है, परन्तु अधिक दोष तो पाँच ज्ञानेन्द्रियों का है।

“उनका विस्तृत रूप से वर्णन करते हैं कि यह जीव कई तरह के भोजन करता है, उनके विभिन्न स्वाद तथा विभिन्न गुण होते हैं। व्यक्ति जैसा भोजन करता है वैसे ही गुण उसके अन्तःकरण तथा शरीर में बने रहते हैं। गहरी हरी भाँग पीनेवाला यदि प्रभु का भक्त हो, फिर भी ऐसी भाँग के कारण न तो धर्मपालन का ही भान रहता है और न भगवान के भजन की ही सुध रहती है, वैसे ही अनेक प्रकार के आहार के गुण भी गहरी भाँग के नशे के समान इतने विविध प्रकार के होते हैं कि उनकी गिनती करना ही असम्भव होगा! उसी प्रकार यह जीव श्रोत्रेन्द्रिय द्वारा अनन्त प्रकार के शब्दों को सुनता है, उन शब्दों के गुण भी अनन्त प्रकार के होते हैं। अतः व्यक्ति जैसा शब्द सुनता है, वैसा ही गुण उसके अन्तःकरण को प्रभावित करने लगता है। जिस प्रकार किसी हत्यारे की अथवा किसी व्यभिचारी पुरुष या स्त्री की अथवा लोकाचार और वेद-प्रतिपादित मर्यादा के विपरीत आचरण करनेवाले किसी भ्रष्ट जीव की बात को सुनना ऐसा ही है, जैसा गहरी भाँग पीनेवाले की या शराबी की बकवास होती है। ऐसी बातें तो सुननेवालों के अन्तःकरण को भ्रष्ट कर देती हैं तथा भगवान के भजन, स्मरण तथा नियम धर्म की विस्मृति करा देती हैं।

“त्वचा का स्पर्श भी अनन्त प्रकार का होता है तथा उसके गुण भी अनन्त प्रकार के होते हैं। उनमें पापी जीव का स्पर्श, उसी भाँग और शराब के असर की तरह होता है। यदि कोई हरिभक्त भी पापी का स्पर्श कर ले तो उसकी सुधबुध खो जाती है।

“रूप भी अनन्त प्रकार के होते हैं और उनके गुण भी अनन्त ही होते हैं। अतः किसी भ्रष्ट जीव को देखना उसका दर्शन करना भी गहरी भाँग और शराब-सा उन्माद भर देता है। तथा पीनेवालों के समान पापी को देखनेवालों की हालत भी बुरी हो जाती है तथा उसकी बुद्धि भी भ्रष्ट हो जाती है।

“गन्ध भी कई प्रकार की हैं और उनके गुण भी कई तरह के होते हैं। यदि पापी के हाथ के पुष्प अथवा चन्दन को सूंघ लिया, तो बुद्धि उसी प्रकार भ्रष्ट हो जाती है, जिस तरह भाँग पीने से बुद्धि का नाश हो जाया करता है। इस प्रकार पतित व्यक्ति के कुसंग से व्यक्ति की बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है, परंतु के परमेश्वर अथवा उनके संत की संगति से मुमुक्षु की बुद्धि अच्छी हो जाती है। यदि उसकी बुद्धि भ्रष्ट हो गयी हो, तो भी वह भगवान और संत के शब्दों को सुनने मात्र से उत्तम हो जाती है। उनके स्पर्श से भी मति शुभ होती है। यदि धार्मिक मर्यादा के कारण महान सन्त का स्पर्श न हो पाया, तो उनकी चरण-धूलि को लेकर अपने मस्तक पर लगाने से या उनके दर्शन करने से भी उत्तम-पवित्र हो सकते हैं!

“हाँ, उनका दर्शन भी धर्म की मर्यादा का पालन करते हुए ही करना चाहिए, तथा ऐसे महान सन्त का प्रसाद ग्रहण करने से भी जीव पवित्र तो होता है, परन्तु प्रसाद भी परमेश्वर के द्वारा प्रस्थापित वर्णाश्रम की मर्यादा का पालन करते हुए ही लेना चाहिए। यदि कोई वर्णाश्रमधर्म के कारण अन्य प्रसादी न ले सके, तो उसे महान सन्त की प्रासादिक शक्कर की ही प्रसादी लेनी चाहिए। इसी प्रकार से महापुरुषों को समर्पित किए गए पुष्प एवं चन्दन की सुगन्ध लेने से भी बुद्धि निर्मल हो जाती है। इसलिए कोई इन पंचविषयों का उपभोग बिना समझ के करेगा तथा सार-असार का विवेक नहीं रखेगा, तो यदि वह नारद-सनकादिक जैसा भी होगा तो भी उसकी बुद्धि भ्रष्ट हो जाएगी। ऐसी स्थिति में यदि देहाभिमानी की बुद्धि भ्रष्ट हो जाए तो उसके लिए क्या कहना? अतः इन पाँच इन्द्रियों को योग्य-अयोग्य समझे बिना अपने वश से बाहर करेगा तो उसका अन्तःकरण भ्रष्ट हो जाएगा।

“और पाँच इन्द्रियों द्वारा जीव जो आहार करता है, वह यदि शुद्ध आहार करेगा तो अन्तःकरण शुद्ध होगा और अन्तःकरण शुद्ध होने से निरंतर भगवान की स्मृति बनी रहेगी। यदि पंचेन्द्रियों के आहार में एक भी इन्द्रिय का आहार मलिन रहा, तो अन्तःकरण भी मलिन हो जाता है। इसलिए, भगवद्भक्त को भगवान के भजन में जो भी कोई विक्षेप पड़ता है, उसका कारण पाँचों इन्द्रियों के विषय ही हैं, परन्तु अन्तःकरण नहीं है!

“और यह जीव जैसी संगति करता है, वैसा ही उसका अन्तःकरण हो जाता है। यदि वह जीव विषयी जीवों के समाज में बैठा हो और वहाँ सुन्दर सात मंजिलवाली हवेली हो, उसमें सुन्दर शीशे जड़े हुए हों, सुन्दर बिछौने बिछे हुए हों, नानाप्रकार के आभूषणों और वस्त्रों से सुसज्जित होकर विषयीजन बैठे हों और वे एक दूसरे को शराब के जाम पिला रहे हों, शराब से भरी कितनी ही बोतलें पड़ी हों, वेश्याएँ नूपुर-झंकार के साथ थेई-थेई नृत्य कर रही हों, नाना प्रकार के बाजे बज रहे हों, ऐसे वातावरण में जाकर यदि कोई (धर्मिष्ठ भी) बैठ गया, तो उसका अन्तःकरण भी दूसरी तरह का (अशुद्ध, विकारी) हो जाता है। दूसरी ओर घासफूस की झोंपड़ी हो और उसमें फटी गूदड़ीवाले परमहंस की सभा हो रही हो तथा धर्म, ज्ञान, वैराग्य और भक्ति के साथ भगवत्कथा हो रही हो, उस समय वहाँ जाकर यदि कोई पुरुष (दुराचारी भी) बैठ गया, तो उस समय उसका अन्तःकरण दूसरी ही तरह का (विशुद्ध) हो जाता है।

“इसलिए, सत्संग और कुसंग के कारण अन्तःकरण की कैसी स्थिति हो जाती है, वह तो विचार करने पर ही ज्ञात हो सकता है, किन्तु मूर्ख को तो कुछ ज्ञात नहीं होता। अतः यह बात जो मूर्खता तथा पशुतापूर्वक आचरण कर रहे हैं, उनको समझ में नहीं आती, परन्तु जो थोड़ा भी विवेकशील तथा भगवान का आश्रित हो उसे तुरन्त समझ में आती है। अतः परमहंस, सांख्ययोगी तथा कर्मयोगी हरिभक्त सभी को कुपात्र मनुष्यों की संगति नहीं करनी चाहिए।

“और सत्संग में आने से पूर्व कैसा भी कुपात्र जीव हो, परन्तु उसे नियमों की प्रतिज्ञा देकर सत्संग में स्वीकार कर लेना, किन्तु सत्संग में आने के बाद भी यदि कोई स्त्री या पुरुष कुपात्रता रखें, तो उसे सत्संग से दूर कर देना! यदि उसे हटाया नहीं गया तो परिणाम में ज्यादा खराबी भुगतनी पड़ती है। जैसे ‘सर्पदंश’ अथवा ‘किड़ियारा’ - वल्मीक रोग (गैंग्रीन) से ग्रस्त अंग को यदि तुरन्त काट दिया जाए तो वह रोगी स्वस्थ हो जाता है। परन्तु, ऐसा करने में यदि हिचकिचाहट हुई तो और भी ज्यादा बिगाड़ हो जाता है।

“उसी प्रकार जो कुपात्र प्रतीत होता हो, उसका तत्काल ही त्याग कर देना। और यह हमारा वचन है, उसे मेहरबानी करके आप सभी अवश्य पालन करना, तो हम समझेंगे कि आप लोगों ने हमारी हर प्रकार की सेवा की है और हम भी आप सबको आशीर्वाद देंगे, तथा बहुत प्रसन्न होंगे। क्योंकि आपने हमारे परिश्रम को सफल बनाया है और हम सब मिलजुलकर भगवान के धाम में भी साथ में रहेंगे, परन्तु आप सब इस प्रकार नहीं रहेंगे, तो आपके और हमारे बीच की दूरी बहुत बढ़ जाएगी तथा भूत या ब्रह्मराक्षस की देह मिलेगी, आपको परेशान होना पड़ेगा, तथा भगवान की जो कुछ भक्ति की होगी, उसका फल तो भटकते-भटकते न जाने कब मिलेगा और उस समय भी, हमने आगे जो बात कही है, उसी के अनुसार यदि रहेंगे, तभी ही ‘मुक्त’ बनकर आप भगवान के धाम में जा सकेंगे।

“यदि किसी ने भी हमारा अनुकरण किया, तो उसका बहुत बुरा होगा। क्योंकि हमारे हृदय में तो नरनारायण प्रकटरूप में बिराजमान हैं, और मैं तो अनादि मुक्त ही हूँ, लेकिन किसी के उपदेशों से मैं मुक्त नहीं बना हूँ। और मन, बुद्धि, चित्त तथा अहंकार को मैं इस प्रकार पकड़ लेता हूँ, जिस तरह सिंह बकरे को पकड़ लेता है! उसी भाँति मैं अन्तःकरण को पकड़े रहता हूँ और दूसरों को अन्तःकरण दिखायी भी नहीं पड़ता।

“अतः हमारा अनुकरण करके कोई समझे कि, हम भी विषयों का संसर्ग रखकर अलिप्त (निर्लेप) रह पाएँगे, तो समझ लेना कि जब नारद-सनकादिक जैसे भी इस प्रकार नहीं रह सके, तो दूसरों की तो बात ही क्या है? आज तक अनन्त मुक्त हो गए और अनन्त होंगे, लेकिन उनमें विषय-उपाधि में रहकर भी निर्लेप रहे, ऐसा कोई न तो हुआ है और न होगा ही। और, ऐसा आज भी कोई नहीं दिखाई देता है, तथा कोटिकोटि कल्पों तक साधना करने पर भी ऐसा होने में कोई समर्थ नहीं है। अतः हमने जो कहा है, उसके अनुसार आप सभी रहेंगे तभी आपका श्रेय होगा।

“और हम जिस किसी को स्नेहपूर्वक बुलाते हैं, तो उसके जीव के श्रेय के वास्ते ही बुलाते हैं। या तो हम किसी के सामने देखते हैं, अथवा किसी के आग्रह पर स्वादिष्ट भोजन स्वीकार करते हैं, या किसी के द्वारा पलंग बिछाये जाने पर उसे भी स्वीकार करते हैं या किसी के दिये हुए वस्त्राभूषण तथा पुष्पमाला आदि पदार्थों का स्वीकार करते हैं, वह सब हमारा सुखसाधन बढ़ाने के उद्देश्य से नहीं, बल्कि उस जीव के भले के लिए स्वीकार करते हैं! यदि अपने सुख के लिए इन सभी का स्वीकार करते हों, तो हमें श्री रामानन्द स्वामी की सौगन्ध हैं!

“अतः इसे सोच-समझकर कोई हमारा अनुकरण न करें। और पाँचों इन्द्रियों के आहार को अतिशय शुद्ध रूप में बनाये रखें। हमारे इस वचन को अवश्य और अवश्यरूप से मानें। हमारी यह बात तो इतनी सरल है कि सबकी समझ में तुरन्त आ जाएगी। अतः इस बात का सत्संग में अतिशय प्रसार प्रचार करते रहें, उसमें हमारी बहुत प्रसन्नता है!” इतनी बात करने के बाद श्रीजीमहाराज ‘जय सच्चिदानन्द’ कहते हुए अपने निवासस्थान पर पधारे।

॥ इति वचनामृतम् ॥ १८ ॥

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This Vachanamrut took place ago.


२७. छः दर्शन: सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, पूर्वमीमांसा, वेदांत।

२८. अठारह पुराण: ब्रह्म, पद्म, विष्णु, शिव, भागवत, अग्नि, नारदीय, मार्कंडेय, भविष्य, ब्रह्मवैवर्त, लिंग, वराह, स्कंद, वामन, कूर्म, मत्स्य, गरुड, ब्रह्मांड।

SELECTION
प्रकरण गढ़डा प्रथम (७८) सारंगपुर (१८) कारियाणी (१२) लोया (१८) पंचाळा (७) गढ़डा मध्य (६७) वरताल (२०) अमदावाद (३) गढ़डा अंत्य (३९) भूगोल-खगोल वचनामृतम् अधिक वचनामृत (११)

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