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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा मध्य ४७

पंचविषयों में आसक्ति

संवत् १८८० में माघ कृष्णा दशमी (२४ फरवरी, १८२४) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में पूर्वी द्वार के कमरे के बरामदे में विराजमान थे। उन्होंने सभी श्वेत वस्त्र धारण किए थे और पीली छींट की रजाई ओढ़ी थी। उनके समक्ष मुनियों तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

उस समय श्रीजीमहाराज ने कहा कि, “जिस सन्त के पास चार साधु रहते हों, उसे यदि मन देकर उन्हें मानवतापूर्वक रखना आता हो, तो उसके पास साधु प्रसन्नतापूर्वक रह सकते हैं। किन्तु, जिसे साधुओं को रखना नहीं आता, उसके पास साधु नहीं रहते। और जिस साधु को मोक्ष की ग़रज़ हो उसको तो चाहे कितना ही कष्ट दें अथवा कितना ही उसकी विषयासक्ति का खंडन किया जाए, तो भी वह अत्यन्त प्रसन्न रहेगा। जैसे इन मुक्तानंद स्वामी को क्षयरोग हुआ है, वह उन्हें दही, दूध, मिठाई अथवा घी-तेल आदि कोई भी अच्छा पदार्थ खाने नहीं देता। ठीक उसी तरह ज्ञानी पुरुष यही समझता है कि, ‘इस रोग ने तो अच्छे-अच्छे स्वादिष्ट पदार्थ खाने से बिल्कुल वंचित कर दिया है। इसलिए मानो क्षयरोग के रूप में किसी बड़े सन्त का सत्संग प्राप्त हुआ है!’ इस प्रकार उसे ऐसे विचार होते हैं! क्योंकि वास्तव में शिश्न और उदर के सम्बंध में जीव को जो आसक्ति होती है, वही असत्पुरुषत्व है! यह क्षयरोग इन दोनों प्रकार के दोषों को दूर कर देता है। इस रोग की भाँति यदि सत्पुरुष भी विषयों की आसक्ति का खंडन करते हों, उससे मुमुक्षु को दुःखी नहीं होना चाहिए। और, जो खाने-पीने की चीजों की लालसा अथवा अच्छे वस्त्र पाने की लालसा या अपने मनचाहे पदार्थों को प्राप्त करने के लालच से किसी बड़े सन्त के साथ रहता हो, उसे तो साधु ही नहीं मानना, उसे तो लम्पट मानना और श्वान-सदृश समझना। ऐसे मलिन आशयवाला अन्तोगत्वा भगवान से विमुख हो जाता है।

“और, यदि कोई पुरुष सन्त को अच्छा-सा पदार्थ देता है, उसको देख जो उससे ईर्ष्या करता है, वह तथा जो पंचविषयों का लालची है, ये दोनों तो पंचमहापापियों से भी अत्यंत दुष्ट हैं। इसलिए, विवेकशील पुरुष को सन्त की संगति में रहकर अन्तःकरण में ऐसा मलिन आशय नहीं रखना चाहिए। क्योंकि यह सभा तो बदरिकाश्रम तथा श्वेतद्वीप में आयोजित सभा जैसी है। वहाँ बैठकर जब मलिन वासना नहीं टली, तब उसको मिटाने के लिए दूसरा स्थान कहाँ मिलेगा? और पंचविषयों को अपनी जीवात्मा ने देव-मनुष्यादिक अनेक देहों में ठीक तरह से भोगा है, फिर भी उसे अभी तक उन विषयों से तृप्ति नहीं हुई, तो अब भगवान का भक्त होकर एक वर्ष, दो वर्ष या पाँच वर्षों तक विषयों को भोगकर भी विषयेच्छा पूर्ण नहीं हो पाएगी। जैसे पाताल तक पृथ्वी फट चुकी हो, उसे यदि पानी से भरा जाए, तो वह कभी भी नहीं भरेगी, उसी प्रकार इन्द्रियों को भी विषयों से कभी भी तृप्ति नहीं हुई है, और आगे तृप्ति होगी भी नहीं। इसलिए, अब विषयों के प्रति आसक्ति का परित्याग करके साधु यदि डाँटकर ही क्यों न कहें, उनका गुण ग्रहण करना, परन्तु उनमें अवगुण मत देखना। जैसे मुक्तानंद स्वामी ने अपने कीर्तन में भी कहा है कि: ‘सूली ऊपर शयन करावे, तोय साधुने संग रहिये रे।’

“अर्थात् यदि सूली पर चढ़ना पड़े, ऐसी स्थिति में भी हमें संत की संगत नहीं छोड़नी चाहिए। अतः ऐसा अवसर प्राप्त हुआ है, तो अशुभ वासना को मिटाकर ही मरना, किन्तु अशुभ वासना के साथ नहीं मरना है। और, भक्त को ऐसी ही वासना रखनी चाहिए कि, ‘इस देह से निकलकर नारद-सनकादि और शुकजी के सदृश ब्रह्मरूप होकर भगवान की भक्ति करनी है।’ फिर भी यदि ब्रह्मलोक अथवा इन्द्रलोक में निवास हो गया तो भी कोई चिन्ता नहीं! जैसे शौचालय में शौच के लिए गए और उस गड्ढे में यदि सिर के बल गिर गए तो पुनः उठकर स्नान करके पवित्र होते हैं, परन्तु उसमें पड़े नहीं रहते। ठीक उसी प्रकार शुभ वासना रखते रखते यदि ब्रह्मलोक अथवा इन्द्रलोक में जाना पड़ा, तो ऐसा मानना कि माथे भर नरक के गड्ढे में गिरे हैं, परन्तु शुभ वासना के बल पर ब्रह्मलोक तथा इन्द्रलोक के भोगों का परित्याग करके भगवान के धाम में पहुँचना है, परन्तु बीच में कहीं भी ठहरना नहीं है, ऐसा निश्चय रखना।

“जिस प्रकार गृहस्थ और त्यागी आप सब (सन्तों की) सेवा करते हैं, वैसे ही हमें भी हरिभक्त का माहात्म्य जानना चाहिए। जैसे मूलजी ब्रह्मचारी माहात्म्य जानकर हमारी सेवा करते हैं, वैसे ही हम भी ब्रह्मचारी का माहात्म्य जानते हैं। गृहस्थ सब अन्न-वस्त्र द्वारा हम त्यागियों की सेवा करते हैं, वैसे ही हमें भी उनका माहात्म्य समझकर बातचीत द्वारा उनकी सेवा करनी चाहिए। इस प्रकार परस्पर माहात्म्य समझकर हरिभक्तों की संगति रखना!”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ४७ ॥ १८० ॥

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