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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा मध्य ४८

अखण्ड भगवान का चिंतन

संवत् १८८० में माघ कृष्णा चतुर्दशी (२८ फरवरी, १८२४) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में पूर्वी द्वार के कमरे के बरामदे में विराजमान थे। उन्होंने सभी श्वेत वस्त्र धारण किए थे, कंठ में तुलसी की नवीन श्वेत कंठियाँ पहनी थीं और पाग में पीले पुष्पों का तुर्रा लगा हुआ था। उन्होंने कंठ में पीले पुष्पों के हार धारण किए थे। उनके समक्ष मुनियों तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

उस समय साधु प्रेमानन्द स्वामी भगवान के ध्यान-साधना की गरबी ‘वंदुं सहजानन्द रसरूप अनुपम सारने रे लोल’ गा रहे थे। जब वे गा चुके, तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “बहुत अच्छा कीर्तन-गान किया। इन कीर्तनों को सुनकर हमारे मन में ऐसा विचार हुआ कि इन्हें भगवान की मूर्ति का इस प्रकार का चिन्तन बना हुआ है, इसलिए, इन साधु को उठकर साष्टांग दंडवत् प्रणाम करें! जिसके अन्तःकरण में भगवान का ऐसा चिन्तन होता हो और यदि वह ऐसी वासना रखकर देह त्याग करे, तो उसे पुनः गर्भवास भोगना ही नहीं पड़ेगा। और, जो पुरुष भगवान का ऐसा चिन्तन करते हुए जीता हो, तो भी उसने परमपद को प्राप्त कर लिया है। जैसे श्वेतद्वीप में निरन्नमुक्त हैं, वैसे ही वह भी निरन्नमुक्त हो चुका है। और उसकी देहक्रियाएँ जितनी उचित होती हैं, उतनी सहजभाव से होती रहती हैं। जिसको भगवान के स्वरूप का इस प्रकार चिन्तन होता है, वह तो कृतार्थ हो चुका है और उसे तो कुछ भी करना शेष नहीं बचा है। यदि किसी का देहत्याग भगवान के सिवा अन्य पदार्थों का चिन्तन करते हुए होगा, उसके दुःखों का अन्त कोटि कल्पों में भी नहीं हो सकेगा। अतः यह जो अवसर मिला है, उसमें सभी पदार्थों का चिन्तन छोड़कर केवल भगवान के स्वरूप का ही चिन्तन करना चाहिए।

“और, यदि भगवान के स्वरूप का चिन्तन न हो सके, तो भी धर्म, ज्ञान, वैराग्य एवं भक्ति से युक्त जो साधु हैं, उनके बीच पड़े रहना! हमारे अन्तःकरण में भी यही वासना है कि इस देह के त्याग के बाद पुनः जन्म होने का तो किसी प्रकार का निमित्त नहीं है, फिर भी हम अपने हृदय में ऐसा विचार करते हैं कि, ‘जन्म लेने का कोई कारण उत्पन्न करके भी सन्त के मध्य में जन्म लेना है!’ हम भी ऐसा ही चाहते हैं।

“और, जिसे इन कीर्तनों के अनुसार भगवत्स्वरूप का चिंतन होता रहता है, वह काल, कर्म तथा माया के पाश से मुक्त हो चुका है। जिनके घर में ऐसे पुरुष ने जन्म लिया हो, तो समझना कि उसके माँ-बाप भी कृतार्थ हुए हैं। परन्तु जो भी भगवान के सिवा अन्य विषयों का चिन्तन करता है, उसे अत्यंत ही पथभ्रमित समझना। और, जीव जिस-जिस योनि में जाता है, वहाँ स्त्री, पुत्र और धनादि पदार्थ मिलते ही रहते हैं, परन्तु ऐसे ब्रह्मवेत्ता सन्त का संग तथा श्रीवासुदेव भगवान का साक्षात् दर्शन एवं उनका चिन्तन तो अत्यंत दुर्लभ है। अतः जिस प्रकार विषयी जनों के अन्तःकरण में पंचविषयों का चिन्तन हुआ करता है, वैसे ही जिसके हृदय में भगवान का अखंड रूप से चिंतन होता रहे, तो इससे बढ़कर मनुष्य देह का अन्य कोई लाभ नहीं है! वह तो समस्त हरिभक्तों में प्रमुख है। और, उन भक्त का संपर्क शब्द, स्पर्श, रूप, रस तथा गन्ध नामक पंचविषयों से होता है, तो भी सभी विषय भगवान सम्बंधी ही होते हैं। उसके कान अखंडरूप से भगवान की कथा सुनने के लिए तत्पर रहते हैं। उसकी त्वचा भगवान का स्पर्श करने की इच्छा रखती है, उसके नेत्र भगवान और भगवान के सन्त का दर्शन करने के लालायित रहते हैं, उसकी रसना भगवान के महाप्रसाद का रसास्वादन करने के लिए उत्सुक रहती है और उसकी नासिका भगवान के लिए समर्पित पुष्पों तथा तुलसी की सुगन्ध ग्रहण करने की इच्छुक रहती है। परन्तु वह परमेश्वर के सिवा अन्य किसी भी वस्तु को सुखदायी जानता ही नहीं है। जो भी साधक इस प्रकार का आचरण करता है, वह भगवान का एकान्तिक भक्त कहलाता है।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ४८ ॥ १८१ ॥

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