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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा मध्य ४९

भगवान और मायिक आकार में भिन्नता

संवत् १८८० में फाल्गुन शुक्ला द्वितीया (३ मार्च, १८२४) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में श्रीवासुदेव नारायण के मन्दिर के आगे पश्चिमी द्वार के बड़े कमरे के बरामदे में पलंग पर गद्दी-तक़िया बिछवाकर विराजमान थे। उन्होंने सभी श्वेत वस्त्र धारण किए थे और पाग में श्वेत पुष्पों का हार लटकता हुआ रखा था। उनके समक्ष मुनिमंडल तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

उस समय श्रीजीमहाराज बोले कि, “प्रत्यक्ष भगवान की मूर्ति तथा अन्य मायिक आकार में बहुत अन्तर है। परन्तु जो अज्ञानी तथा अतिशय मूर्ख हैं, वे भगवान तथा मायिक आकार को एकसमान समझते हैं। क्योंकि मायिक आकारों को जो भी देखनेवाले हैं, तथा उन्हीं का चिन्तन करनेवाले हैं, वे तो अनन्त कोटि कल्पपर्यन्त चौरासी लाख योनियों में भटकते फिरते हैं। और, जो भगवान के स्वरूप का दर्शन करते हैं तथा उसका चिन्तन करते रहते हैं, वे काल, कर्म और माया के बन्धन से छूटकर अभयपद प्राप्त कर लेते हैं और भगवान के पार्षद होते हैं। इसलिए, हमारे मन को तो भगवान की कथा, कीर्तन या वार्ता अथवा ध्यान से कभी भी तृप्ति नहीं होती। आप सबको भी इसी प्रकार जीवन बिताते रहना चाहिए।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ४९ ॥ १८२ ॥

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