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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा मध्य ५०

रहस्य; जगत वासना से मुक्ति

संवत् १८८० में चैत्र कृष्णा द्वितीया (१५ अप्रैल, १८२४) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में श्रीवासुदेव नारायण के मन्दिर के आगे पश्चिमी द्वार की पहली मंजिल के बरामदे में रात्रि के समय विराजमान थे। उन्होंने श्वेत वस्त्र धारण किए थे। तथा उनके समक्ष मुनियों तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

उस समय श्रीजीमहाराज बोले कि, “आज हम अपना रहस्य आप सबको अपना समझकर बताते हैं। जिस प्रकार नदियाँ समुद्र में विलीन हो जाती हैं, सती और पतंगा अग्नि में भस्म हो जाते हैं और शूरवीर संग्राम में अपने प्राण न्यौछावर कर देते हैं, वैसे ही हमने भी अपनी आत्मा को एकरस परिपूर्ण ब्रह्मस्वरूप में विलीन कर रखा है।२४२ हमने उस तेजोमय अक्षरब्रह्म में रहनेवाले मूर्तिमान पुरुषोत्तम भगवान तथा उनके भक्तों के साथ अखंड प्रीति जोड़ रखी है। उनके सिवा अन्य किसी भी पदार्थ में हमारी प्रीति नहीं है। हमारी ऐसी स्थिति निरन्तर रहती है। यद्यपि बाह्यरूप से हम अपने अतिशय त्याग का दिखावा नहीं करते, परन्तु अपने अन्तर-सम्मुख देखकर जब हम अन्य हरिभक्तों के अन्तर सम्मुख देखते हैं, तो हमें ऐसा लगता है कि बड़े-बड़े परमहंस और बड़ी-बड़ी सांख्ययोगिनी स्त्रियों के हृदय में जगत के प्रति थोड़ी-बहुत आसक्ति तो दिखती है किन्तु हमारे अन्तःकरण में कभी स्वप्न में भी जगत के प्रति आसक्ति का संकल्प नहीं होता तथा कोई भी हमें भगवान तथा भगवान के भक्तों की भक्ति से च्युत करने में समर्थ नहीं है, ऐसी हम में दृढ़ता है।

“जब (आत्मा को) भगवान की प्राप्ति नहीं हुई थी, तब भी भगवान की शक्ति काल और कर्म भी इस जीव का नाश नहीं कर पाए, तथा माया भी उसको अपने में विलीन नहीं कर सकी, तो अब तो भगवान की प्राप्ति हुई है, तो फिर काल, कर्म और माया की क्या मजाल है? ऐसा समझकर ही अब हमने साहस बटोरकर रखा है कि, ‘अब भगवान और भगवान के भक्तों के सिवा अन्य किसी से भी प्रीति नहीं रखनी है।’ तथा जो भक्तजन हमारी संगत में रहेंगे, उनके हृदय में भी कोई सांसारिक आसक्ति नहीं रहने देनी है। क्योंकि जिसकी हमारे जैसी आन्तरिक दृढ़ता होती है, उसी के साथ हमारी पटती है। और, जिसके हृदय में सांसारिक सुख की वासना बनी रहती हो, उसके साथ हम स्नेह करने का प्रयास करें, फिर भी हमारा स्नेह उससे नहीं जुड़ सकता। अतः हमें तो भगवान के निर्वासनिक भक्त ही प्रिय हैं। यह जो हमारे अन्तःकरण का रहस्य है, आप सभी को बता दिया।”

इस प्रकार श्रीजीमहाराज ने अपने भक्तजनों की शिक्षा के लिए यह वार्ता की।

॥ इति वचनामृतम् ॥ ५० ॥ १८३ ॥

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This Vachanamrut took place ago.


२४२. श्रीहरि ने अक्षरब्रह्म के साथ इस प्रकार से अपनी आत्मा को विलीन करके रखा है, वह अन्य जीवों, ईश्वरों तथा अक्षरमुक्तों से भी उनका अक्षरब्रह्म के प्रति अनन्य प्रेम एवं एकता का सूचक है। अक्षरब्रह्म गुणातीतानंद स्वामी के जीवनचरित्र में इस प्रकार की एकता की अनेक घटनाएँ उल्लिखित हैं।

SELECTION
प्रकरण गढ़डा प्रथम (७८) सारंगपुर (१८) कारियाणी (१२) लोया (१८) पंचाळा (७) गढ़डा मध्य (६७) वरताल (२०) अमदावाद (३) गढ़डा अंत्य (३९) भूगोल-खगोल वचनामृतम् अधिक वचनामृत (११)

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