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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा मध्य ५१

आत्मसत्तारूप रहने के लक्षण

संवत् १८८० में चैत्र कृष्णा नवमी (२२ अप्रैल, १८२४) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में दक्षिणी द्वार के कमरे के बरामदे में पलंग पर गद्दी-तकिया लगवाकर विराजमान थे। उनके समक्ष मुनियों तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

उस समय श्रीजीमहाराज ने परमहंसों से प्रश्न पूछा कि, “जीव जब कभी सुषुप्ति अवस्था में रहता है, तब उसे अतिशय सुख की अनुभूति होती है, किन्तु कभी सुषुप्ति अवस्था में रहने पर भी उसका उद्वेग नहीं मिटता, इसका क्या कारण है?”

प्रश्न सुनकर बड़े-बड़े सन्तों ने इसका उत्तर देने का प्रयास किया, परन्तु वे यथार्थरूप से संतुष्ट न कर सके।

इसके पश्चात् श्रीजीमहाराज बोले कि, “जब रजोगुण का बल बढ़ जाता है, तब सुषुप्ति अवस्था में भी तमोगुण के साथ रजोगुण का विक्षेप रहता है, इस कारण सुषुप्ति में भी सुख नहीं रहता। अतः जब तक गुणों का संग रहता है, तब तक कोई भी जीव सुखी नहीं रह सकता। और जब आत्मसत्तारूप रहता है, तभी सुखी रहता है।”

फिर मुक्तानन्द स्वामी ने पूछा, “आत्मसत्तारूप रहनेवाले भक्त के कौन से लक्षण हैं?”

तब श्रीजीमहाराज ने कहा कि, “शिव, ब्रह्मा जैसे कोई अन्य समर्थ देव नहीं हैं। वे नारद जैसे महर्षियों के भी गुरु हैं, तथा वे जिस प्रकार ब्रह्मस्वरूप रहकर आचरण करते हैं, वैसा रहना दूसरों के लिए कठिन होता है। फिर भी देश, काल, क्रिया, संग, मंत्र, शास्त्र, दीक्षा और ध्यान अशुभ हुए तो उनके योग से शिव-ब्रह्मा जैसे बड़े देवों तक को भी अन्त में अत्यन्त दुःख हुआ है। अतः कोई चाहे जितना निर्गुण हो और आत्मसत्तारूप से रहता हो, उसे यदि अशुभ देशकालादि का योग उपस्थित हो गया, तो उसके अन्तःकरण में दुःख अवश्य होगा।

“अतः सत्पुरुष द्वारा निर्धारित मर्यादाओं का लोप करके कोई भी सुखी नहीं हो सकता। इसलिए, जितने भी त्यागी हैं उन्हें त्यागियों के धर्मानुसार आचरण करना, गृहस्थ हरिभक्तों को गृहस्थ धर्म के अनुसार बरतना और हरिभक्त स्त्रियों को नारियों के धर्मानुसार आचरण करना चाहिए। यदि निर्धारित मर्यादाओं से न्यून आचरण किया तो भी सुख नहीं होता, और उन मर्यादाओं से अधिक आचरण किया गया, तो भी सुख नहीं मिलता। क्योंकि परमेश्वर द्वारा प्रतिपादित धर्मानुसार ही ग्रन्थ में लिखा गया होता है, तथा मर्यादापूर्ण आचरण ऐसा होता है कि पालन करनेवालों को किसी प्रकार की बाधा उपस्थित नहीं होती एवं उस धर्म का आसानी से पालन भी किया जा सकता है। अतः कोई इसमें न्यूनाधिक आचरण करने का प्रयास करेगा, तो वह अवश्य दुःखी होगा। इसलिए, जो सत्पुरुष की आज्ञा के अनुसार रहता हो, वही शुभ देशकालादि में रहा है। परंतु जिसने सत्पुरुष की आज्ञा के विपरीत आचरण किया, वही उसको बुरे देश-कालादि का संग लग चुका है। अतः सत्पुरुष की आज्ञा के अनुसार आचरण करनेवाला ही आत्मसत्तारूप में रहा है।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ५१ ॥ १८४ ॥

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