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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा मध्य ५३

अपना दोष नहीं दीख पाना ही मोह

संवत् १८८० में वैशाख शुक्ला पंचमी (३ मई, १८२४) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में अपने निवास स्थान में गद्दी-तकिया लगवाकर विराजमान थे। उन्होंने श्वेत वस्त्र धारण किए थे। उनके समक्ष मुनियों तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

उस समय श्रीजीमहाराज बोले कि, “शास्त्रों में वर्णित मोह का रूप यह है कि हृदय में जब मोह व्याप्त होता है, तब जीव को अपना अवगुण सूझता ही नहीं। अतः अपना अवगुण न सूझे, वही मोह का रूप है। और, जीवमात्र को अपने सयानेपन का अत्यंत अहंकार रहता है, परन्तु वह यह विचार नहीं करता कि मुझे अपनी आत्मा का ही पता नहीं है, कि इस शरीर में जो आत्मा है, वह काली है कि गोरी? या लम्बी है कि ठिगनी? फिर भी, मनुष्य बड़े सत्पुरुष अथवा भगवान में भी दोष देखता है तथा यह समझता है कि, ‘अवश्य ही ये सत्पुरुष अथवा भगवान हैं, परन्तु वे इतना ठीक नहीं करते।’ किन्तु, वह मूर्ख ऐसा नहीं जानता कि, ‘ये भगवान तो अनन्तकोटि ब्रह्मांडों में रहनेवाले प्रत्येक जीवों और ईश्वरों को हथेली में जल की बूँद के समान देखते हैं। वे अनन्तकोटि ब्रह्मांडों के आधार हैं, लक्ष्मी के पति हैं, अनन्तकोटि ब्रह्मांड के कर्ता-हर्ता हैं; शेष, शारदा एवं ब्रह्मादि देव भी जिनकी महिमा का पार नहीं पाते, और निगम भी जिनकी महिमा को ‘नेति-नेति’ बताता है। ऐसे परमेश्वर के चरित्रों तथा भगवान की समझ में जो दोष देखता है, उसे विमुख और अधर्मी जानना तथा मूर्ख का राजा (घोर मूर्ख) समझना चाहिए।

“वास्तव में भगवान तथा भगवान के भक्त की अलौकिक समझ होती है। उसे देहाभिमानी जीव कैसे समझ सकेगा? इसलिए, वह अपनी मूर्खता के कारण भगवान तथा उनके भक्तों में अवगुण देखकर विमुख हो जाता है। दूसरी ओर उन भगवान के सच्चे भक्त जो सत्पुरुष हैं, वे अलौकिक दृष्टि से युक्त आचरण करते रहते हैं।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ५३ ॥ १८६ ॥

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प्रकरण गढ़डा प्रथम (७८) सारंगपुर (१८) कारियाणी (१२) लोया (१८) पंचाळा (७) गढ़डा मध्य (६७) वरताल (२०) अमदावाद (३) गढ़डा अंत्य (३९) भूगोल-खगोल वचनामृतम् अधिक वचनामृत (११)

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