॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥
परब्रह्म पुरुषोत्तम
भगवान श्रीस्वामिनारायण के
॥ वचनामृत ॥
गढ़डा मध्य ५४
सत्संग की महिमा; सत्पुरुष में आत्मबुद्धि
संवत् १८८० में जयेष्ठ शुक्ला सप्तमी (३ जून, १८२४) को तृतीय प्रहर के समय स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन से घोड़ी पर सवार होकर श्रीलक्ष्मीवाड़ी में पधारे थे। वहाँ बहुत देर तक तो घोड़ी घुमाते रहे। इसके बाद वे वाड़ी में स्थित वेदी पर विराजमान हुए। उन्होंने सभी श्वेत वस्त्र धारण किए थे, मस्तक पर काले पल्ले की धोती बाँधी थी और कंठ में मोगरे के पुष्पों का हार पहना था तथा पाघ पर तुर्रा सुशोभित हो रहा था। उनके समक्ष मुनिमंडल तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।
उस समय श्रीजीमहाराज ने मुनियों से प्रश्न किया कि, “श्रीमद्भागवत के एकादश स्कन्ध के बारहवें अध्याय में श्रीकृष्ण भगवान ने उद्धवजी से कहा है कि: ‘अष्टांगयोग, सांख्य, तप, त्याग, तीर्थ, व्रत, यज्ञ और दानादि साधनों से मैं इतना वश में नहीं होता, जितना कि सत्संग द्वारा वश में हो जाता हूँ।’ भगवान ने ऐसा बताया है। अतः स्पष्ट है कि समस्त साधनों की अपेक्षा सत्संग का महत्त्व अधिक है। सो समस्त साधनों की अपेक्षा सत्संग की महत्ता जिसे अधिक प्रतीत होती हो, उसके कैसे लक्षण होते हैं?”
इस प्रश्न के पश्चात्, जिसको जैसा समझ में आया, उसने वैसा बताया, किन्तु कोई भी यथार्थ उत्तर न दे पाया।
तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “जिसे भगवान के सन्त के साथ ही आत्मबुद्धि (गाढ़ प्रीति) है, उसी ने सत्संग को सबसे अधिक कल्याणकारी जान लिया है। जैसे कोई निःसंतान राजा को अपनी वृद्धावस्था में पुत्र प्राप्ति हुई, तो वह बड़ा होने पर उसी राजा को गालियाँ दे अथवा मूँछ ताने, फिर भी उसको, उसके प्रति दुर्भाव नहीं होता! और उसका वह पुत्र किसी लड़के को मारे-पीटे अथवा गाँव में जाकर कुछ अनीति का कर्म करे, फिर भी राजा को उसमें किसी भी प्रकार का अवगुण दिखाई नहीं पड़ता। इसका कारण यही है कि उस राजा को अपने लड़के में आत्मबुद्धि हो गई है। इस प्रकार जिसको भगवान के भक्त में आत्मबुद्धि हुई, तो जानना चाहिए कि उसी ने समस्त साधनों की अपेक्षा सत्संग को अधिक कल्याणकारी समझ लिया है। यह वार्ता भागवत में कही गई है:
‘यस्यात्मबुद्धिः कुणपे त्रिधातुके स्वधीः कलत्रादिषु भौम इज्यधीः।यत्तीर्थबुद्धिः सलिले न कर्हिचिज्जनेष्वभिज्ञेषु स एव गोखरः॥’२४३
“इस श्लोक में पूर्वोक्त वार्ता को यथार्थ रूप से बताया गया है।”
॥ इति वचनामृतम् ॥ ५४ ॥ १८७ ॥
This Vachanamrut took place ago.
२४३. जिस पुरुष को वात, पित्त तथा श्लेष्मरूप त्रिधातुमय शरीर में आत्मबुद्धि है, स्त्री-पुत्रादि में ममत्वबुद्धि है तथा भूमि के विकारभूत प्रतिमादिक में पूजनीय देवताबुद्धि है और जल में तीर्थबुद्धि है, वैसी ही उस पुरुष की आत्मबुद्धि आदिक चारों बुद्धियाँ भगवान के एकान्तिक ज्ञानी भक्त में न हों तो उसे पशुओं में भी कनिष्ठ खर जानना चाहिए। (श्रीमद्भागवत: १०/८४/१३)