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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा मध्य ५५

स्वर्णरूप चैतन्य में चांदीरूप मायिक गुणों की मिलावट

संवत् १८८० में ज्येष्ठ शुक्ला एकादशी (७ जून, १८२४) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में पूर्वी द्वार के कमरे के बरामदे में पलंग पर विराजमान थे। उन्होंने मस्तक पर नवानगर२४४ की सुनहरे पल्ले की श्वेत पाग बाँधी थी, सफ़ेद पिछौरी ओढ़ी थी तथा श्वेत धोती धारण की थी। श्रीजीमहाराज के समक्ष मुनियों तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी। उस समय मुनिगण झाँझ-मृदंग बजाकर कीर्तन कर रहे थे।

जब मुनिगण भजन-कीर्तन कर चुके तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “जैसी जिसकी रुचि हो, वैसी ही सत्संग होने के पहले भी कुछ थोड़ी-बहुत अवश्य रही होगी। इसलिए आज जिनकी जैसी रुचि रही हो, वे सब सभा में बतायें। सबसे पहले हम अपनी रुचि की बात बताते हैं, उसे सुनिए।

“जब हमारी बाल्यावस्था थी, तब भी हमें देव-मन्दिर में दर्शन के लिए जाना, कथा वार्ता सुनना, साधुओं का सत्संग करना, तीर्थयात्रा करने जाना आदि बहुत प्रिय लगता था। जब हम गृह त्याग करके निकले उस समय तो हमें वस्त्र रखना भी पसन्द नहीं था और वन में ही रहना अच्छा लगता था। उस समय भय तो लेशमात्र लगता ही नहीं था। वन में भी बड़े-बड़े सर्प, सिंह, हाथी आदि अनेक प्रकार के प्राणी दिखाई पड़े, परन्तु हमारे हृदय में मृत्यु का डर तनिक भी नहीं लगता था। इस प्रकार हम महावन में सदैव निर्भय रहा करते थे। इसके पश्चात् तीर्थों में घूमते हुए हम श्रीरामानन्द स्वामी के पास आए। जब श्रीरामानन्द स्वामी अन्तर्धान हुए, तब सत्संग का हित करने की दृष्टि से हम सबसे हिलमिलकर रहने लगे। परन्तु अन्तःकरण में हमें अखंडरूप से यह विचार बना रहता है कि जब किसी मनुष्य को मृत्यु के समय भूमि पर लिटा दिया गया हो, तब उस मनुष्य से सभी को निजी स्वार्थ की वासनाएँ टल जाती हैं और उस मरणोन्मुख मनुष्य का भी मन संसार से उदास हो जाता है; वैसे ही हमें हमारी ओर से तथा दूसरों की ओर से ऐसी ही उदासीनता सदैव रहा करती है, जैसी किसी को अपनी अन्त अवस्था में रहती है।

“तथा जितने भी मायिक पदार्थमात्र हैं, वे सभी नाशवान तथा तुच्छ दिखाई देते हैं, परन्तु हमें ऐसा भेद नहीं दिखाई देता कि, ‘अमुक पदार्थ अच्छा है और अमुक पदार्थ खराब है।’ जितने भी मायिक पदार्थ हैं, वे सब एकसमान ही दिखाई पड़ते हैं। जैसे कांख के रोएँ में कौन अच्छा और कौन बुरा कहा जाएगा? वे तो सभी एकसमान ही हैं! वैसे ही हमारे मन में सभी मायिक पदार्थ एकसमान ही प्रतीत होते हैं। हालाँकि हम पदार्थों के विषय में कभी-कभी ‘यह अच्छा, यह बुरा’ आदि अभिप्राय व्यक्त करते हैं, किन्तु वह भगवान के भक्त को अच्छा लगे, इसी कारण कहते हैं। यह अच्छा भोजन है, अच्छा वस्त्र है, अच्छा गहना है, अच्छा घर है, अच्छा घोड़ा है, ये सुन्दर पुष्प हैं इत्यादि वचन भक्त का मन रखने की दृष्टि से ही कहते हैं।

“हमारी समस्त क्रियाएँ भगवान के भक्त के लिए हैं, परन्तु अपने सुख के लिए हम एक भी क्रिया नहीं करते। और, भगवान के एकान्तिक भक्त का मन भगवान के स्वरूप का ही चिन्तन किया करता है। उसकी वाणी भगवान के यश का ही गान किया करती है, उसके हाथ भगवान तथा भगवान के भक्त की सेवा-परिचर्या में लगे रहते हैं और उसके कान भगवान के यश को निरन्तर सुनते रहते हैं। ठीक उसी प्रकार हम जिन क्रियाओं को भगवान की भक्ति जानकर करते हैं, वे क्रिया ही हुआ करती हैं। अतः सिवा भगवान की भक्ति के, हमें अन्य सभी पदार्थों में उदासीनता ही बनी रहती है। जैसे कोई बड़ा राजा हो और उसका एक ही पुत्र हो, और राजा की उम्र साठ-सत्तर वर्ष की हो चुकी हो, उन्हीं दिनों में यदि उस राजा का पुत्र मर जाए, तो राजा का मन समस्त पदार्थों से पूर्णतः उदास हो जाएगा। उसी तरह हमें भी खाते हुए, पीते हुए, घोड़े पर चढ़ते हुए और प्रसन्न-अप्रसन्न अवस्था में हर समय मायिक पदार्थों से सदैव उदासीनता ही बनी रहती है और अन्तःकरण में ऐसा विचार रहता है कि, ‘हम तो देह से पृथक् आत्मा हैं, परन्तु देहरूप नहीं है।’

“इसके साथ ही हमें यह विचार भी बना रहता है कि आत्मा में कभी मायाजन्य रजोगुण एवं तमोगुण आदि का कुछ मायिक अंश शामिल न हो जाए। इसीलिए, हर घड़ी इस बात से सावधान रहते हैं। जैसे कोई साढ़े सोलह अंशवाला शुद्ध स्वर्ण लेकर सुनार की दुकान पर जाए, वहाँ उसकी नज़र तनिक-सी भी चूक गई तो सुनार उसमें से कुछ सोना निकालकर चाँदी मिला देता है। वैसे ही, हृदयरूपी सुनार की दुकान है और उसमें मायारूपी सुनार स्वयं बैठा हुआ संकल्परूपी हथौड़ा लगातार चलाता रहता है। और, जैसे उस सुनार की स्त्री और लड़के को भी थोड़ा-सा भी मौका मिल जाय, तो वे भी जिस तरह छल-प्रपंच करके उस सोने में से कुछ सोना चुरा लेते हैं; वैसे ही अन्तःकरण तथा इन्द्रियाँ ये सब मायारूपी सुनार के स्त्री-पुत्रादि हैं, जो स्वर्णरूप चैतन्य में तीन गुणों, पंचविषयों में आसक्ति, देहाभिमान तथा काम-क्रोध-लोभादिरूपी चाँदी को मिलाकर ज्ञान-वैराग्यादि गुणरूप सोने को निकाल लेते हैं। इस प्रकार वह सोना केवल बारह अंश का ही रह जाता है। उसे पुनः तपा-तपा करके पुनः सोलह अंश करना पड़ता है।

“ठीक उसी तरह इस जीव में रजोगुण एवं तमोगुणरूपी जो चाँदी मिली हुई है, उसे गलाकर निकाल देना, फिर एक स्वर्णरूपी आत्मा ही रहे, लेकिन उसमें अन्य किसी प्रकार के मायिक गुणों की मिलावट कुछ न रह पाए; इस प्रकार के विचार में हम रात-दिन लगे रहते हैं। यह हमने अपनी रुचि आपको बता दी, अब जिस जिसकी जो भी रुचि हो, हमें बताएँ।”

तब सन्तमंडल ने कहा कि, “हे महाराज! आपमें मायिक गुणों की मिलावट हो ही नहीं सकती। आप तो कैवल्यमूर्ति हैं। किन्तु यह जो आपने आपकी रुचि की बातें कही हैं और आपने जो विचार प्रकट किया है, वह हमारी प्रेरणा के लिए ही है। अतः ऐसा विचार तो हमें रखना चाहिए।”

इसके पश्चात् श्रीजीमहाराज ‘जय सच्चिदानन्द’ कहकर अपने निवास स्थान में पधारे।

॥ इति वचनामृतम् ॥ ५५ ॥ १८८ ॥

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२४४. वर्तमान: जामनगर, गुजरात।

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