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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा मध्य ५६

कुसुंभी वस्त्र के दृष्टांत से विषयासक्ति का त्याग

संवत् १८८१ में आषाढ़ शुक्ला पंचमी (१ जुलाई, १८२४) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में पूर्वी द्वार के कमरे के बरामदे में पलंग पर गद्दी-तकिया लगवाकर विराजमान थे। उन्होंने सभी श्वेत वस्त्र धारण किए थे। उनके समक्ष मुनिमंडल तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

साधुवृंद दुक्कड़-सरोद लेकर भजन-कीर्तन कर रहा था। कीर्तन के बाद श्रीजीमहाराज इस प्रकार बोले कि, “इस भजन को सुनने से हमारी आत्मा विचारों में तल्लीन हो गई और उससे ऐसा प्रतीत हुआ कि भगवान में अतिशय प्रीति रखना बहुत बड़ी बात है। बाद में भगवान में प्रीति रखनेवाले गोपालानन्द स्वामी आदि हरिभक्तों का स्मरण हो आया और उन सबके अन्तःकरण, आत्मा तथा भगवान में उनकी प्रीति आदि दिखाई दिए। फिर हमने हमारी आत्मा का भी निरीक्षण किया, तो हमें लगा कि भगवान के प्रति जितनी हमारी प्रीति बनी हुई है, वैसी प्रीति दूसरों की नहीं दीख पड़ी। वह इसलिए कि जब कुछ अशुभ देश-कालादि का योग उपस्थित होता है, तब उन सभी के बड़े होने के बावजूद, उनकी बुद्धि भ्रमित हो जाती है। उस समय ऐसा मालूम होता है कि आखिर तो उनकी नींव ही कच्ची है! अतः उनको यदि अशुभ देश-कालादि का योग पूरी तरह बन गया, तो भगवान में लगी हुई उनकी प्रीति का कोई ठिकाना नहीं रह जाता। इसलिए उन सभी को दृष्टिगत रखते हुए हमें अपनी तरफ़ का जो कुछ है, अच्छा लगता है कि, ‘चाहे कैसा भी अशुभ देशकालादि का योग उपस्थित हो, परन्तु हमारा अन्तःकरण किसी भी प्रकार से बदल नहीं सकता।’

“वास्तव में भगवान के प्रति उसी पुरुष की प्रीति सच्ची है, जिसको भगवान के सिवा अन्य किसी भी पदार्थ से लगाव ही न रहे! और, समस्त सद्ग्रन्थों का भी यही रहस्य है कि भगवान ही परम आनन्ददायक हैं और वे ही परम सार भी हैं। तथा उन परमात्मा के सिवाय जो-जो अन्य पदार्थ हैं वे अत्यंत तुच्छ हैं तथा अत्यंत सारहीन हैं।

“और, जिसे भगवान के बिना अन्यत्र लगाव बना रहता है, उसका आधार बहुत ही कच्चा है। जैसे कुसुम्भी वस्त्र देखने में तो अति सुन्दर दिखाई पड़ता है, परन्तु जब उस पर पानी पड़ जाता है और उसे धूप में सुखाने के लिए रखते हैं, तब वह बिल्कुल निरुपयोगी हो जाता है और सफ़ेद कपड़े जैसा भी नहीं रह पाता। वैसे ही जिसे पंचविषयों में आसक्ति हो, फिर जब उसे कुसंग का योग होता है, तब उसका कोई ठिकाना नहीं रह पाता। अतः भगवान के भक्त को भगवान को प्रसन्न करने हेतु पंचविषयों की आसक्ति का सर्वथा परित्याग कर देना चाहिए और भगवान के प्रति विद्यमान प्रीति में बाधक ऐसे किसी भी पदार्थ से लगाव नहीं रखना चाहिए।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ५६ ॥ १८९ ॥

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