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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा प्रथम १९

आत्मनिष्ठा आदि गुणों की अपेक्षा

संवत् १८७६ में पौष शुक्ला प्रतिपदा (१८ दिसम्बर, १८१९) को श्रीजीमहाराज सन्ध्या के समय श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में विराजमान थे। उन्होंने श्वेत वस्त्र धारण किए थे। उनके मुखारविन्द के सामने सभा में परमहंस तथा स्थान-स्थान के हरिभक्त बैठे हुए।

उस समय श्रीजीमहाराज ने कहा कि, “इस सत्संग में अपने आत्यन्तिक कल्याण की इच्छा रखनेवाला जो भक्त है, उसका आत्यन्तिक कल्याण का उद्देश्य केवल एक आत्मनिष्ठा के गुण के द्वारा ही सिद्ध नहीं हो सकता। और, केवल प्रीति यानी स्नेहपूर्वक नौ प्रकार की भक्ति से भी कल्याण का हेतु सिद्ध नहीं होता तथा केवल वैराग्य और अकेला स्वधर्म भी आत्यन्तिक कल्याण के लिए कारगर नहीं होता। इसलिए, कल्याण के लिए आत्मनिष्ठा आदि चार गुणों को सिद्ध करना चाहिए। क्योंकि, इन चारों गुणों को एकदूसरे की अपेक्षा रहती है।

“अब किस तरह इन चारों गुणों को एक-दूसरे की अपेक्षा है वह कहते हैं - आत्मनिष्ठा होने पर भी यदि श्रीहरि में प्रीति न हो, तो उस प्रीति के द्वारा होती श्रीहरि की प्रसन्नता तथा उस प्रसन्नता से प्राप्य महान ऐश्वर्य अर्थात् ‘माया के गुणों से पराभूत न हो सकें, ऐसा महान सामर्थ्य’ को वह भक्त नहीं पा सकता। और यदि श्रीहरि में प्रीति हो, परन्तु आत्मनिष्ठा न हो तो देहाभिमान के कारण उस प्रीति की सिद्धि नहीं हो पाती। यदि श्रीहरि में प्रीति भी हो तथा आत्मनिष्ठा भी हो परन्तु दृढ़ वैराग्य न हो तो मायिक पंचविषय में आसक्ति रह जाती है, और उसी के कारण प्रीति एवं आत्मनिष्ठा की सिद्धि नहीं हो पाती।

“यदि वैराग्य तो हो, फिर भी यदि भगवत्प्रीति और आत्मनिष्ठा न हो, तो श्रीहरि के स्वरूप से सम्बंधित परमानन्द की प्राप्ति नहीं हो सकती। साथ ही स्वधर्म के रहने पर भी यदि प्रीति, आत्मनिष्ठा और वैराग्य तीनों न रहे तो भूर्लोक, भुवर्लोक तथा ब्रह्माजी के लोक तक जो स्वर्गलोक है, उससे आगे जीव की गति नहीं हो पाती, अर्थात् ब्रह्मांड को लांघकर माया के तम से परे जो श्रीहरि का अक्षरधाम है, उसको वह नहीं पाता। इसी प्रकार आत्मनिष्ठा, प्रीति तथा वैराग्य के रहने पर भी यदि स्वधर्म न हो, तो इन तीनों की सिद्धि नहीं होती। इस प्रकार आत्मनिष्ठा आदि चारों गुणों को एक-दूसरे की अपेक्षा रहा करती है। इसलिए भगवान के एकान्तिक भक्त के सत्संग से जिस भक्त में इन चारों गुण अतिशय सुदृढ़ तौर से रहते हों, मान लें कि उसी भक्त के समस्त साधन सम्पूर्ण हो गए, तथा उसी को एकान्तिक भक्त समझें। अतः इन चारों गुणों में से जिस भक्त में जिस गुण की न्यूनता हों, उसे भगवान के एकान्तिक भक्त की सेवा तथा सत्संग के द्वारा मिटा देना चाहिए।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ १९ ॥

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